योग-माहात्म्य
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[ संशोधित एवं परिवर्द्धित ] 
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स्वामी श्री सन्तसेवी जी महाराज
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प्रकाशक : अखिल भारतीय संतमत-सत्संग-प्रकाशन-समिति 
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट पत्रालय-बरारी, भागलपुर-३ (बिहार)
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अनुक्रमणिका 


भारत में योग-विद्या इतनी प्राचीन है कि उसके आरम्भ का समय बतलाया जाना सम्भव नहीं जान पड़ता। ऐसा कहा जा सकता है कि भोले बाबा-सदाशिव जी के होने का समय जबसे बतलाया जा सके, तभी से योग-विद्या भारत में है। यह विद्या अवश्य ही पहले लिखित ग्रन्थ-रूप में नहीं थी, पीछे पतञ्जलि मुनि-द्वारा इसका लिखित रूप ‘पातञ्जल योग-दर्शन’ के नाम से ग्रन्थाकार में प्रकट हुआ।
मैं इस विद्या को अध्यात्म-विज्ञान कहता हूँ। जैसे भौतिक विज्ञान में भौतिक प्रयोग द्वारा भौतिक आविष्कार का चमत्कार प्रत्यक्ष देखा जाता है, उसी तरह अध्यात्म-विज्ञान के चमत्कार का भी प्रत्यक्षीकरण होता है। इसकी प्रयोगशाला प्रत्येक मनुष्य का अपना-अपना शरीर है। इसमें आत्मा-ब्रह्म की प्रत्यक्षता सर्वोच्च चमत्कार है। इसके पूर्व इस ओर की गति में अभ्यासी को योग-अभ्यास द्वारा जो अनुभूतियाँ होती हैं, वे भी एक के बाद दूसरी अधिक-अधिक चमत्कारिक होती हैं, वर्णित सर्वोच्च चमत्कार का फल परम मंगलमय, परम शान्तिदायक और ब्रह्मनिर्वाण-दायक है।
‘योग-माहात्म्य’ नाम्नी इस छोटी पुस्तिका में सरलतम, सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण फलप्रद योग-अभ्यास का वर्णन हुआ है। इसके अध्ययन से उस सरलतम योग का ज्ञान होता है और उसके अभ्यास करने की रुचि हो जाती है। यह इस प्रकार का सरल और श्रेष्ठ योग है, जिसके करने का अधिकार भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य मात्र को दिया है, और बाबा नानक कहते हैं- “ चहुँ वरना को दे उपदेश।” इसमें अवश्य ही अभ्यास-विधि के बतलानेवाले अभ्यासी गुरु की आवश्यकता अत्यन्त अपेक्षित है।

25 मार्च, 1967 ई0
-मेँहीँ 


योग-परक पीन (संपन्न) पुस्तक पर्याप्त हैं पर पतली-सी इस पुस्तक के प्रणयनार्थ परिश्रम क्यों? इसलिये-
कि-योग के सरलतम रहस्य का यथासम्भव सही रूप में उद्घाटन हो सके।
कि-नीली, धौती, वस्ती, रेचक, पूरक, कुम्भक प्रभृति कठोर क्रियाओं के बिना भी ‘योग’ पूर्ण फल-प्रद होता है।
कि- “ योग, ज्ञान, ध्यान आदि से सात्त्विकी वृति-साधु-वृत्ति हो जाती है, वह जागतिक कार्य-सँभाल के योग्य नहीं रह जाता” इस भ्रम के भूत को भगाया जा सके।
कि- “ योग साधु-संन्यासियों की चीज है, गृहस्थों के लिये नहीं” इस मिथ्या धारणा का निवारण हो सके।
कि-सरल और सहज योग सभी संयमशील जन से साध्य है, चाहे वह गृहस्थ हो या विरक्त।
कि-किसी भी देश, जाति वा धर्म के मानव, चाहे वे स्त्रियाँ हों, पुरुष हों अथवा नपुंसक हों, विद्वान हों, अविद्वान हों, धनी हों, निर्धन हों, इस योग के सभी समान अधिकारी हैं।
विशेष बोध के लिये विषय-सूची का अवलोकन करें, पुस्तक आपके कर-कमलों में है।
पुस्तक-प्रकाशन में जिन लोगों ने जिस किसी भी भाँति की सहायता की है, उन सबको मैं हार्दिक धन्यवाद हूँ।

वसन्तोत्सव, 2023
-प्रणेता


योग हृदय-केन्द्र-बिन्दु में युग दृष्टियों को जोड़िकर।
मन मानसों को मोड़ि सब आशा निराशा छोड़िकर।।1।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि-धार धरि आवरण सारे तोड़िकर।
सूरत चला प्रभु मिलन को विषयों से मुख को मोड़िकर।।2।।
झूठ चोरी नशा हिंसा और जारी छोड़िकर।
गुरु ध्यान अरु सत्संग-सेवन में स्वमति को जोड़िकर।।3।।
जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम-भाँड़े फोड़िकर।
सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ धर छल छोड़िकर।।4।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

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जोगु न खिथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै।
जोगु न मुंदी मूंडि मूंड़ाइअै जोग न सिंञो वाईअै।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।1।।
गली जोगु न होई।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई।।1।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोग न ताड़ी लाईअै।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोग न तीरथि नाईअै।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।2।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै।
अञ्जन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाइअै।।3।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै।
बाजे बाझहु सिञो बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै।
अञ्जन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाइअै।।4।।
-बाबा नानक
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प्राणिमात्र स्वभावतः सुख के अन्वेषी होते हैं, कल्याणकामी होते हैं। चराचर प्राणियों में मानव श्रेष्ठ गिना जाता है। यह भी, सुख कहाँ और किस विधि से मिले, इसकी खोज में जमीं और आसमां को छानकर एक करना चाहता है। इस सम्बन्ध में वह यथासम्भव आधिभौतिक प्रयास करता भी रहा है; किन्तु पाता क्या है? सुख के स्थान पर दुःख, संतोष की जगह असंतोष और शान्ति के बदले अशान्ति। फलस्वरूप वह मानसिक वेदना-अन्तर्दाह से झुलसकर मर्माहत हो मृतप्राय हो रहा है।
मात्र भारत का नहीं, आज अखिल विश्व का नग्न नृत्य सबके समक्ष समुपस्थित है। करोड़ों और अरबों डालर व्यय करके विनाशकारी यंत्र निर्मित किये जा रहे हैं। जन-बल, धन-बल, अस्त्र-बल और छल-बल से एक दूसरे पर आधिपत्य जमाना चाहता है। मानव मानव के रक्त का प्यासा बन रणचण्डी की भाँति नृत्य करता हुआ, विद्वेष एवं विनाश के सामानों का सर्जन कर गौरवान्वित होने का स्वप्न देखता है।
इतना ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में अशान्ति की भीषण ज्वाला ‘ज्वालामुखी’ बनकर धधक रही है, जिसके परिणामस्वरुप जनगण के तन, मन एवं प्राण दग्ध हो रहे हैं। शान्ति-संहार की सुसज्जित सेना सहस्त्रों को स्वर्गारोहण करा चुकी, करा रही है तथा कराने को सामने खड़ी है। गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ धू-धू करके जल रही हैं, शिशु अनाथ हो रहे हैं, नव विवाहिताओं को माँग के सिन्दूर-सुहाग धुल रहे हैं; सधवाएँ विधवाएँ हो रही है, शमर श्मशान बन रहा है; किन्तु इच्छाभिमान की अग्नि बुझती नहीं। संकीर्ण स्वार्थ ने जन-जीवन को कलुषित एवं विषाक्त कर प्रेम की जगह घृणा, सत्य की जगह असत्य और अहिंसा की जगह हिंसा उत्पन्न कर अस्त-व्यस्त एवं संत्रस्त बना दिया है। जहाँ देखिये, वहाँ ही कलह, क्रन्दन, द्वेष, वैमनस्य, दुःख और हाहाकार!
किन्तु इतने पर भी आज के सभ्य कहलानेवालों के कानों में जूँ तक रेंगने नहीं पाती। विद्वेष की प्रलयंकरी विभीषिका के परिणाम से परिचित होते हुए भी अपरिचित से हो रहे हैं। ऐसा लगता है, भौतिक विज्ञान की सारी शक्तियाँ विश्व की प्रेम-पीयूष से प्लावित करने के बदले श्मशान के रूप में परिणत करने को तुल गई है। किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
“ मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मान्तक ।
सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक ।।”
ये तो हमारे बाह्यपद हैं। इनके अतिरिक्त हमारे सुख के घातक और भी तो हैं, जो बाहर नहीं, हमारे अन्दर हैं। हमारी देह, जिसमें हम निवास करते हैं, क्या आपदाहीन है? कदापि नहीं। यह भी सापद है। कहा नहीं जाता, समझ में नहीं आता, यह शरीर हमारा निवास-गृह है वा कारा-गृह! दैहिक, दैविक और भौतिक ये त्रिताप सतत सन्तप्त करते रहते हैं। कभी शारीरिक पीड़ा और कभी मानसिक चिन्ताएँ इस प्रकार झकझोरती हैं जैसे आँधी दुर्बल वृक्ष को।
हम कभी स्वतंत्र नहीं रह पाते। अवश होकर मन को गुलामी करनी पड़ती है। मन को प्रसन्न रखने के लिये हमें कौन-सा कर्म नहीं करना पड़ता? काश! उन कर्मों को ‘कर्म’ कहने में भी लज्जा होनी चाहिये; क्योंकि वे तो अकर्म-अधर्म, अधिक क्या कहें-कुकर्म है। बाह्य वा सुदूर के शत्रु तो समय पाकर आक्रमण करते हैं, किन्तु यह दुष्ट मन और इसके विकार (काम-क्रोधादिक) हमारे चतुर्दिक बहिरन्तर चक्रव्यूह बनाये खड़े हैं।
बेचारा मानव इन दुःखों को सहने के अतिरिक्त और कुछ जानता नहीं। सुख की प्रतीक्षा करते-करते वह काल के गाल में समा जाता है। फिर भी, सुख कहाँ? सुख की बाट देखता हुआ मौत के घाट उतरता है। जग-जीवन में यदि कभी बिजली की भाँति क्षणिक सुख की आभा दिखाई भी पड़ी, तो उसके साथ ही अविलम्ब अन्धकार का साम्राज्य-दुःख का पर्वत टूट पड़ता है। ऐसी दुरवस्था में मानव किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है और व्यथित होकर पाश में फँसे खरगोश की भाँति तड़पता है। कितने तो आकुल और अधीर हो अपनी आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
देव-दुर्लभ नर-तन की इस निस्सहायावस्था का अवलोकन कर हृदय प्रकम्पित हो उठता है। मार्ग-दर्शक के अभाव में सत्य-पथ सूझता नहीं। फिर भी, निराशा में एक आशाभरी दृष्टि लिये अव्यक्त दिशा की ओर देखता है और उसके अन्तर से आर्त्तंनाद निःसृत होता है- “ क्या दुःखों के प्रहण का-मानव के आत्म-कल्याण का कोई मार्ग नहीं?”
इसके उत्तर में सन्त महात्मा, ऋषि-महर्षि और मनीषी; सभी एक स्वर में कहते हैं-हाँ, है और वह है-‘योगमार्ग’।
यह कथन कि “ वर्त्तमान यान्त्रिक युग में देश और काल की दूरी कम हो गयी है,” जितने अंश में मान्य है, उससे कई गुणा अधिक सत्य यह है कि “ लोगों के हृदय की दूरी बढ़ गयी है।”
इस दूरी को दूर करनेवाला कौन है? वह है-योग। टूटे हुए हृदय को जोड़नेवाला ‘योग’ है। बिछुड़े हुए से मिलानेवाला ‘योग’ है। ‘योग’ ज्ञान-प्रदाता और अज्ञान-हर्त्ता है। मनोनिग्रह वा चित्त को एकाग्र कराने वाला ‘योग’ है। त्रय ताप-संतप्त प्राणी को कल्पतरु की शीतल छाया में बिठानेवाला ‘योग’ है। बहिर्मुख मानव को अन्तर्मुख बना, अंतर की अंतिम तह में पहुँचनेवाला ‘योग’ है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कराने में ‘योग’ ही समर्थ है। भवभय को पराजित करानेवाला ‘योग’ है। प्रभुपद में लीन कराने वाला ‘योग’ है। भव-रोगों का विनाशक तथा सब शोकों का निवारक ‘योग’ है। सर्वसिद्धि-दाता ‘योग’ है। समता प्राप्त कराने की क्षमता ‘योग’ में है। ममता-पाश से मुक्त करानेवाला ‘योग’ है। स्वरूप का साक्षात्कार करानेवाला तथा सर्वेश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान करा देनेवाला ‘योग’ है।
जैसे दूध में घृत, तिल में तेल और पुष्प में सुरभि रहती है, वैसे ही योग के अन्दर मानव का परम कल्याण निहित है। इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि वासना-क्षय, प्राण-जय और मनोलय कराने वाला ‘योग’ है।
गिरे हुओं को उठाने वाला, छिपी वस्तु को प्रकट कराने वाला, अन्धकार में प्रदीप प्रज्वलित करके प्रकाश देनेवाला, भ्रमित पथिक को सत्पथ-सन्मार्ग दिखानेवाला ‘योग’ है। ----यही है योग की उपादेयता।  


योग की चर्चा आरम्भ करते ही पातञ्जल योग की स्मृति हो आती है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगशास्त्र (पातञ्जल योग) में सर्वप्रथम ‘अथ योगानुशासनम्’ कहकर ग्रन्थ का शुभारम्भ किया है। शासन, उपदेश अथवा शिक्षा को कहते हैं। इसलिये अनुशासन शब्द से श्री पतञ्जलि महाराज ने योग-शिक्षा का प्राचीन परम्परा से चला आना बतलाया है, जिसका वर्णन श्रुति और स्मृति में पाया जाता है।
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।
(याज्ञवल्कय)
हिरण्यगर्भ ही योग के वक्ता हैं। इनसे पुरातन और कोई वक्ता नहीं है, इत्यादि वचनों से श्री याज्ञवल्क्य ने हिरण्यगर्भ को योग का आदिवक्ता अर्थात गुरु माना है। इसी प्रकार-
सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स उच्यते ।
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः ।।
(महाभारत 12-349-65)
सांख्य के वक्ता कपिलाचार्य परमर्षि कहलाते हैं और योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं, जिनसे पुराना और कोई वक्ता नहीं है। इसी प्रकार-
इदं हि योगेश्वर योगनेपुण्यं हिरण्यगर्भो भगवान जगाद यत।
(श्रीमद्भागवत 5-19-13)
हे योगेश्वर! यह योग-कौशल वही है, जिसे भगवान हिरण्यगर्भ ने कहा था।” (पातञ्जलयोगप्रदीप)
भगवान हिरण्यगर्भ की चर्चा हम विश्व के प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में पाते हैं और यजुर्वेद में भी; यथा-
“ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाबार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मे देवाय हविषा विधेम ।।”
(ऋ0 10-121-1, यजु0 अ0 13 मन्त्र 4)
अर्थात हिरण्यगर्भ ही पहले उत्पन्न हुए, जो समस्त भूतों के एक पति थे। उन्होंने इस पृथ्वी और स्वर्ग लोक को धारण किया। उस सुख-स्वरूप देव की हम पूजा करते हैं।
योग की प्राचीनता बतलाते हुए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस भाँति कहा है-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।
(गीता 4-1)
यह अविनाशी योग मैंने सूर्य से कहा। उन्होंने मनु से और मनु से इक्ष्वाकु से कहा।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कानेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।2।।
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त राजर्षियों का जाना हुआ वह योग दीर्घकाल बीतने से लुप्त हो गया।
स एवाय मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।3।।
वही प्राचीन योग मैंने आज तुमसे कहा है; क्योंकि तू मेरा भक्त और सखा है। यह योग उत्तम रहस्य की बात है।
मोह-मोहित मन स्वभावतः शंकालु होता है। इसलिये शंकितचित्त अर्जुन पूछता है-
अपरं भवतो जन्म परं विबस्वतः ।
कथमेत द्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।4।।
आपका जन्म तो इधर का है और विवस्वान जी का पहले हो चुका है, तब मैं कैसे जानूँ कि आपने यह पहले उनसे कहा था?
अर्जुन को शंका का समाधान करने के लिए भगवान क्या कहते है; कितने ठोस और मार्मिक वचन हैं उनके। सुनिये-
बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्य परन्तप।।5।।
हे अर्जुन! मेरे और तेरे जन्म तो बहुत-से हो गये हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्म मायया ।।6।।
मैं अजन्मा, अविनाशी और भूतमात्र का ईश्वर होते हुए भी अपने स्वभाव लेकर अपनी माया के बल से जन्म-ग्रहण करता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।7।।
हे भारत! जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की बढ़ती होती है, तब-तब मैं जन्म-ग्रहण करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।।8।।
साधुओं की रक्षा के लिये और दुष्टों के विनाश के लिये तथा धर्म का प्रतिष्ठान करने के लिये मैं युग-युग में जन्म लेता हूँ। 


जैसे क्षेत्र वा देह के जानु, पद, हस्त, उर, शिर, वचन, दृष्टि और मन (बुद्धि)-ये आठ अंग हैं। शरीर में किसी अवयव की कमी से वह अपूर्ण कहलाता है, उसी भाँति योग के आठ अंगों में से किसी का अभाव होने से पूर्ण योग नहीं कहला सकता। अतएव पातञ्जल योग के उन अष्टांगों का वर्णन यहाँ समास रूप में किया जा रहा है।
यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार ।
धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावंगनि ।।29।।
(साधनपाद)
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि; योग के आठ अंग हैं।
(1) अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।।30।।
(साधनपाद)
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; ये पाँच ‘यम’ कहलाते हैं।
(क) अहिंसा=हिंसा नहीं करनी। मन, वचन और काया से काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि मनोवृत्तियों के साथ किसी प्राणी को व्यक्त वा अव्यक्त रूप से पीड़ा न पहुँचाना ‘अहिंसा’ है। किन्तु “ शिक्षार्थ ताड़ना देना, रोग निवारणार्थ औषधि देना वा ऑपरेशन करना, सुधारार्थ वा प्रायश्चित्त के लिये दण्ड देना अनिवार्य हिंसा है।” धर्म-युद्ध में युद्ध करना कर्त्तव्य-पालन करना है। यह अनिवार्य हिंसा है, जैसे कृषकों के लिये कृषि-कर्म की हिंसा। यदि हमारी जान लेने के लिये या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिये अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिये या हमारा धन छीन लेने के लिये कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाय, तो उस हमको क्या करना चाहिये? ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहकर ऐसे मनुष्य की उपेक्षा की जाय या यदि सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं-
गुरुं वा बाल वृद्धौ ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्त्या देवा विचारयन् ।।
अर्थात ऐसे आततायी या दुष्ट को अवश्य मार डाले, किन्तु यह विचार न करे कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है। शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करनेवाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है।
(ख) सत्य=त्रयकाल-अबाधित, वह वस्तु जिसमें किसी प्रकार का विकार न हो। जैसा देखा हो, जैसा सुना हो और जैसा अनुमान किया हो, वाणी-द्वारा ठीक वैसा ही व्यक्त करना और मन में धारण करना ‘सत्य’ है। किन्तु “ सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ” अर्थात सत्य बोले, प्रिय बोले, वह सत्य न बोले जो अप्रिय हो। “ साधु सोइ सराहिये, साची कहै बनाय।” (सन्त कबीर) अर्थात सत्य को सुहाता बनाकर बोले।
(ग) अस्तेय=चोरी का त्याग। अनुचित रीति से किसी के धन वा अधिकार का हरण न करना ‘अस्तेय’ है।
(घ) ब्रह्मचर्य=वीर्य-संयम। मैथुन अथवा अन्य किसी भाँति से शुक्र का नाश नहीं होने देकर जितेन्द्रिय रहना।
(घ) अपरिग्रह=असंग्रह। आवश्यकता से अधिक धन वा भोग-सामग्री का त्याग ‘अपरिग्रह’ कहलाता है।
(2) शौच सन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।।32।।
(साधनपाद)
शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ‘नियम’ है।
(क) शौच=पवित्रता। ये दो प्रकार के होते हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। शुच्याचार और सदाचार।
(ख) संतोष=शक्त्यनुसार उचित प्रयत्न के पश्चात् जो प्राप्त हो, उसका प्रसन्न चित्त से उपभोग करना और तृष्णा का परित्याग ‘संतोष’ कहलाता है।
(ग) तप=तपस्या। शरीर को तपाने वा कष्ट देनेवाले वे कार्य जो चित्त को विषयों से हटाने के लिये किये जायँ। ये तीन प्रकार के हैं-शारीरिक, वाचिक और मानसिक। तप किं? विषय भोग परिहरई।
(घ) स्वाध्याय=अध्यात्म-शास्त्रों का अध्ययन। गुरु-प्रदत्त मन्त्र का जप भी ‘स्वाध्याय’ कहलाता है।
(घ) ईश्वर-प्रणिधान=परमात्मा में चित्त लगाना।
(3) स्थिर सुखासनम्।।46।।
(साधनपाद)
जो स्थिर और सुखदायी हो, वह ‘आसन’ है। जिस रीति से स्थिरतापूर्वक बिना हिले-डुले और सुख के साथ बिना किसी प्रकार के कष्ट के, दीर्घ काल तक बैठा जा सके, वह ‘आसन’ है; जैसे-सिद्धासन, पद्मासन आदि।
(4) तस्मिन् सतिश्वास प्रश्वासयोर्गति दिच्छेदः प्राणायामः।।49।।
(साधनपाद)
आसन के स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति का रोकना ‘प्राणायाम’ है।
प्राणापान समायोगः प्राणायाम इतीरितः ।
प्राणायाम इति प्रोक्तो रेचक पूरक कुम्भकैः ।।
(योगि याज्ञवल्क्य 6।2)
प्राण और अपान वायु के मिलाने को ‘प्राणायाम’ कहते हैं। प्राणायाम कहने से रेचक, पूरक और कुम्भक की क्रिया स्वयं हो जाती है।
(5) स्वविषया सम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार
इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।54।।
(साधनपाद)
इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ सम्बन्ध न होने पर चित्त के स्वरूप का अनुकरण-जैसा करना ‘प्रत्याहार’ है। “ जिस देश में मन लगाना है, वहाँ से जितनी बार मन हटे, उतनी बार मन को लौटा-लौटाकर अपने ध्येय में लगाना ‘प्रत्याहार’ कहलाता है।”
(6) देशबन्धश्चित्तस्य ध्यानम्।।2।।
(विभूतिपाद)
चित्त का वृत्तिमात्र से किसी स्थान विशेष में बाँधना ‘धारणा’ कहलाता है। प्रत्याहार के द्वारा निर्दिष्ट स्थान वा ध्येय वस्तु पर मन के अल्प टिकाव को ‘धारणा’ कहते हैं।
(7) तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।2।।
(विभूतिपाद)
उस (ध्येय) में वृत्ति का एक-सा बना रहना, ध्यान है। धारणा में चित्त जिस वृत्तिमात्र से ध्येय में लगता है, जब वह वृत्ति इस प्रकार समान प्रवाह से लगातार उदय होती रहे कि दूसरी और कोई वृत्ति बीच में न आये, तब उसको ‘ध्यान’ कहते हैं।
‘ध्यानं शून्यगतं मनः।’
(ज्ञानसंकलिनी तन्त्र)
शून्यगत मन को ‘ध्यान’ कहते हैं। तथा ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ मन जब संकल्प-विकल्प त्याग कर ध्येय वस्तु में लगा रहे, उसको ध्यान कहते हैं।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।3।।
(विभूतिपाद)
वह ‘ध्यान’ ही समाधि कहलाता है, जब उसमें केवल ध्येय अर्थमात्र से भासता है और उस (ध्यान) का स्वरूप शून्य-जैसा हो जाता है। जब यह भान नहीं रहे कि मैं ध्यान कर रहा हूँ-यह ध्यान की अवस्था है, किन्तु केवल ध्येय तत्त्व के स्वरूप का ही भान होता रहे, तब वह ‘समाधि’ कहलाती है। समाधि के दो भेद हैं-‘सम्प्रज्ञात और ‘असम्प्रज्ञात’।
ब्रह्माकार मनोवृत्ति प्रवाहोऽहंकृतिं विना ।
सम्प्रज्ञात समाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः ।।53।।
(मुक्तिकोपनिषद, अ02)
जब अहंकार-वृत्ति निरुद्ध होकर केवल ब्रह्माकार में चित्त की वृत्ति होकर रहती है, इसको ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ कहते हैं; यह अतिशय ध्यानाभ्यास से होती है।
प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम् ।
असम्प्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः ।।45।।
(मुक्तिकोपनिषद, अ02)
जब चित्त की सब वृत्तियाँ प्रशान्त हो जायँगी, उसी अवस्था का नाम ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ है। वह योगियों को प्रिय है।
प्रभाशून्यं मनः शून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम् ।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनिभावितः ।।55।।
(मुक्तिकोपनिषद, अ0 2)
ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है।
ऊर्ध्व पूर्णमधः पूर्ण मध्य पूर्णं शिवात्मकम्।
साक्षाद्विधिमुखो ह्येष समाधिः पारमार्थिकः।।56।।
(मुक्तिकोपनिषद, अ0 2)
(इस समाधि में) ऊपर, नीचे और मध्य, सर्वत्र कल्याणकारी ब्रह्म की परिपूर्णता की अनुभूति होती है, विधि-मुख (कथित) यह पारमार्थिक समाधि है। 


‘योग’ शब्द ‘युज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र, अवस्थिति’ इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के ‘उपाय, साधन, युक्ति या मर्म’ को भी ‘योग’ कहते हैं।
अमर कोष में ‘योग’ शब्द के अर्थ प्रायः इसी भाँति किये हैं- “ योगः संहननोपाय ध्यान संगति युक्तिसु” (3-22)।
गीता 9/22 में प्रयुक्त ‘योगक्षेम’ शब्द ‘अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करने” के अर्थ में लिया गया है।
महाभारत के युद्ध-काल में द्रोणाचार्य को अजेय देखकर भगवान श्री कृष्ण ने कहा था- “ एकोहि योगऽस्य भवेद्वधाय” (महा0 द्रोणपर्व 181-31) अर्थात द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही ‘योग’ है। यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ साधन या युक्ति किया गया है। महाभारत में ‘योग’ शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग, योगी अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार आये हैं।
भगवान श्री कृष्ण के संगायन का साकार रूप ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। इसके अष्टादश अध्यायों को अष्टादश योगों को संज्ञा प्राप्त है। इतना ही नहीं, इस ग्रन्थ विशेष में इन योगों के अतिरिक्त अन्य योगों की भी चर्चा है।
भगवान श्री कृष्ण को ‘महायोगेश्वरी हरिः’ कहा गया है। यही कारण है कि हम गीता में ‘योग’ कूट-कूट कर भरा पाते हैं। ज्ञातव्य है कि ‘योग’ के प्रकार अनेक हैं, यौगिक साधनाएँ अनेक हैं, इसकी प्रक्रियाएँ भी अनेक हैं, फलस्वरूप इसका माहात्म्य अनन्त है। योग के अनेक प्रकार होने के कारण इसकी परिभाषा भी एक नहीं, विभिन्न-अनेक हैं। यथा “ चित्तवृत्ति निरोध इति योगः” (पातंजल योग-दर्शन)। यहाँ चित्तवृत्ति-निरोध को महर्षि पतंजलि ‘योग’ कहते हैं। ‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता 2/48) अर्थात समता का ही नाम ‘योग’ है। यहाँ ‘योग’ शब्द को समता के अर्थ में लिया गया है। पुनः “ योगः कर्मसुकौशलम् ” (गीता 2/50) अर्थात कर्म करने की कुशलता या चतुराई का योग कहते हैं। यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ उपर्युक्त प्रकारों से भिन्न ही, एक तीसरे प्रकार में व्यवहृत हुआ है। इसके व्यतिरिक्त युक्त होने को भी ‘योग’ कहते हैं। ‘यं संन्यासमिति प्राहुर्योग तं विद्धि पाण्डव’ (गी0 6/2) में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- “ हे पाण्डव! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे तू ‘योग’ जान।”  


अतीत काल में यहाँ के जन-गण के मन-मन के कार्य-कलाप योगमय थे। किन्तु जमाने ने पलटा खाया-समय ने करवट बदली, काल ने अपना कराल रूप धारण किया और ‘योग’ शब्द मानो लोगों के समक्ष विकराल जन्तु जैसा खड़ा हो उठा। परिणामस्वरूप सम्प्रति लोग ‘योग’ का नाम सुनकर भी सुनना नहीं चाहते। किन्तु यदि विवेक-विलोचन से अवलोकन किया जाय, तो ‘योग’ कोई हिंस्त्र जन्तु या भयंकर जानवर नहीं; बल्कि हमारे दैनन्दिन सब कार्य योगमय है; जैसे-पठन-पाठन, लेखन-वाचन, भोजन, शयन एवं जागरण प्रभृति सारे कार्य योगमय हैं। ये सारे कर्म मन के ‘योग’ से होते हैं। मन का वियोग होते ही कार्य तो ठप्प पड़ते ही हैं, साथ ही आपदा भी अवश्यंभावी हो जाती है।
योग का वियोग हमारे लिये असह्य हो जाता है। थोड़ी देर के लिये मान लीजिये कि हमारा (मन) योग यदि स्त्री, पति, पुत्र प्रतिष्ठा और धनादि में है, तो क्या, इनमें से किसी एक का भी वियोग हम प्रसन्तापूर्वक सह सकते हैं? कभी नहीं। इनमें से किसी का भी वियोग जीवन को बोझिल बना देता है, जिससे कितने जन आकुल एवं अधीर होकर अपनी जान देने को उतारू हो जाते हैं। इतना ही नहीं, कितनों ने तो वियोग-दुःख को असह्य जानकर आत्महत्या तक कर ली है। अतएव यह ध्रुव है कि योग के बिना हम रह नहीं सकते। सीधे शब्दों में हम कह सकेंगे कि हमारे जागतिक जीवन-यापन के सभी कार्य योग पर ही अवलम्बित हैं।
एक विद्यार्थी को लीजिये, यदि वह मनोयोगपूर्वक अध्ययन, श्रवण और मनन नहीं करे, तो वह विद्या-विहीन रहेगा। प्रायः देखा जाता है कि महाविद्यालयों में आचार्य महोदय के व्याख्यान समाप्त होने पर कितने छात्र कहते हैं कि आज का व्याख्यान हम सुन न सके। ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्नोदय होता है कि आचार्य और छात्र दोनों एक ही कमरे में थे, फिर वे व्याख्यान श्रवण नहीं कर सके, इसका क्या कारण है? कारण स्पष्ट है कि उनके मन का योग व्याख्यान में नहीं था, कहीं अन्यत्र था। “ तन कहीं और मन कहीं।”
एक कृषक यदि मनोयोगपूर्वक कृषि-कर्म नहीं करे, तो वह अन्न नहीं उपजा सकता। एक व्यापारी अन्यमनस्क होकर व्यापार करे, तो उसे लाभ की जगह हानि उठानी पड़ेगी। युद्धकाल में योद्धागण यदि अपना पूर्ण मनोयोग नहीं दें, तो वे पराजित होंगे, यह सुनिश्चित है। अतएव यह सिद्ध है कि जिस तरह दूध में घृत, तिल में तेल और ईंधन में अनल निहित है, उसी तरह मानव के प्रत्येक कर्म में योग सन्निहित है।
श्रीमद्भागवत में एक कथा है कि राजा जनक जी के यहाँ जब श्री शुकदेव जी भोजन करने लगे तो उनको दिखलाया गया कि जिस मकान में बैठकर वे भोजन कर रहे थे, उस मकान की छत अविलम्ब टूटकर धराशायी होनेवाली है। यह देखकर भय के मारे उनके मन का योग टूटती हुई छत से हो गया और भोज्य पदार्थों से वियोग हो गया। फलस्वरूप उन्होंने क्या-क्या भोजन किया और उसका स्वाद कैसा-कैसा था, इससे वे बिल्कुल अनभिज्ञ रहे। तात्पर्य यह है कि अपनी ध्येय वस्तु से मन की वृत्ति का पृथक होना बियोग तथा संयुक्त होना योग है।
स्वभावतः मन अत्यन्त चपल है, यह मदोन्मत्त गजेन्द्र की भाँति विषयोद्यान में विचरण करता रहता है। मन की इस बहिर्वृति का एकत्रीकरण करके केन्द्रीभूत करना ही ‘योग’ है। इसी को महर्षि पतंजलि ने ‘चित्तवृत्ति निरोध इति योगः’ कहा है।
किन्तु हाँ, एक प्रसिद्ध कहावत है कि जिस बिल्ली का मुँह गर्म दूध से जल जाता है, वह ठण्ढे मट्ठे में भी मुँह डालने से भयभीत होती रहती है। ठीक इसी तरह हमारे यहाँ कुछ अयोग्य गुरू की अधूरी शिक्षा के कारण, अविधि क्रिया और असंयमित जीवन होने के कारण अथवा ऐसे ही किसी हेतु से हठयोग की प्रक्रियाओं में कुछ लोगों को लाभ की जगह हानि उठानी पड़ी। उसे ही देखकर लोग ‘योग’ का नाम सुनते ही भयभीत हो उठते हैं। वे जानते नहीं कि हठयोग के अतिरिक्त और भी कोई योग है, जिसमें तनिक भी डरने, घबराने वा आतंकित होने की बात नहीं। और वह है- राजयोग। यह भी इतना सरल, सुखद एवं निरापद है कि हम उसे दैनन्दिन कार्यों में व्यवहृत कर सकते हैं। इसीलिये तो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-
“तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।।8.27।। ”
(गीता/27)
तथा-
“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। 8.7।।”
(गीता 8/7)
इसी को सन्तों ने “ तन काम में मन राम में” कहा है।
अतएव सावधान! हम ‘योग’ का नाम सुनकर एकाएक चौंक न उठें। योग का परित्याग कर लौकिक कार्य सुसम्पन्न नहीं हो सकते, फिर पारलौकिक कार्य की बात ही क्या? बिना योग के न तो बच्चे पढ़ सकते और न कोई विद्वान ही हो सकते हैं। और तो और, बिना मनोयोग के रोटी और भात भी नहीं बना सकते और न तात, मात, भ्रात, जाति-पाति आदि के सम्बन्ध ही रह सकते। योग के कारण ही पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई और गुरु-शिष्य का परस्पर प्रेम-मिलाप और प्रेमालाप होता है।
बिना योग के चित्तवृत्ति का निरोध नहीं होता, चित्तवृत्ति-निरोध के बिना चित्त एकाग्र नहीं हो पाता और एकाग्रता-रहित की वृत्ति का पूर्ण सिमटाव नहीं होता; क्योंकि पूर्ण सिमटाव एक बिन्दुता में ही होता है। अतः एकविन्दुता प्राप्त किये बिना ऊर्ध्वगति नहीं होती। ऊर्ध्वगति हुए बिना आवरण का भेदन नहीं होता और अनावृत हुए बिना स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। फिर इस तरह की डावाडोल स्थिति में स्वरूप में प्रतिष्ठित होना वा सर्वेश्वर का साक्षात्कार करना, उपनिषद-वाक्यानुकूल ‘दूरात्सुदूरे’ दूर से भी अधिक दूर है। अतएव ‘योग’ की अनिवार्य आवश्यकता है। यही कारण है कि ‘योग’ की उपादेयता जानकर ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगी बनने के लिये प्रोत्साहित किया था।
“ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्यीगी भवार्जुन ।।”
(गीता 6/46)
अर्थात तपस्वी से योगी अधिक है, ज्ञानी से भी वह अधिक माना जाता है, वैसे ही कर्मकाण्डी से भी वह अधिक है; इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन।
किन्तु हाँ, जब हम ‘योग’ को दो भागों में विभक्त कर एक को राजयोग और दूसरे को हठयोग की संज्ञा देते हैं, तब अवश्य ही हठयोग में कुछ चौंकने अथवा दूसरे शब्दों में विशेष चौकस रहने की आवश्यकता होती है। यद्यपि हठयोग-शास्त्रों में इसकी बहुत प्रशंसा की गई है, तथापि शाण्डिल्योपनिषद में इस भाँति लिखा है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।”
अर्थात जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है; प्रकरान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
अब हमें गीता-ज्ञान की गहराई में पैठकर इस बात की खोज करनी होगी कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को किस ‘योग’ की ओर प्रेरित किया; हठयोग की ओर अथवा राजयोग-ध्यानयोग की ओर? गीता ग्रन्थ के अध्येता इस बात से भली भाँति परिचित हैं कि उक्त ग्रन्थ में हठयोग के प्राणायाम की चर्चा तो है, पर उसके आवश्यक अंगों, उपांगों, विधि-नियमों एवं आसनों आदि का कुछ भी उल्लेख नहीं है। किन्तु राजयोग के समस्त विधि-नियमों का विस्तार-पूर्वक वर्णन तो उसमें है ही। इतना ही नहीं, ध्यानयोगी वा राजयोगी के दैनिक सामान्य व्यवहार जैसे खान-पान, शयन-जागरण, आसन आदि बातों का भी उद्घाटन किया गया है।
महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे- “ देखना चाहिए कि गीता में किस योगाभ्यास की ओर अधिक प्रेरण है? प्राणायाम-योग की ओर वा ध्यानयोग की ओर? कैसे स्थान पर, क्या-क्या बिछाकर, शरीर को किस तरह रखकर और किस विधि से प्राणायाम करना चाहिये, ये बातें प्राणायाम के वर्णन में उतनी विशेष रूप से नहीं हैं, जितनी कि ध्यानयोग में हैं। श्रीमदभगवद्गीता में प्राणायाम-योग नामक कोई एक विशेष अध्याय भी नहीं है, परन्तु ध्यानयोग नामक एक विशेष अध्याय तो उसमें है ही। अतएव यह मानने में संशय नहीं रह जाता कि गीता ध्यान-योगाभ्यास करने की ही अधिक प्रेरणा देती है। इस सम्बन्ध में और एक बात जाननी चाहिए कि गीता में एक अध्याय ‘राजविद्या राजगुह्ययोग’ का भी है। इस अध्याय के अनुकूल तो निरापद, सरल, कुशल-साध्य और रहस्यमय साधन होना चाहिये। प्राणायाम ऐसा नहीं माना जा सकता।”
इस विषय की विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये पूज्य महर्षि जी के शब्दों में ही पढ़िये- “ ज्ञान से ध्यान विशेष है; परन्तु यह नहीं कि ज्ञान से प्राणायाम विशेष है। बारहवें श्लोक में कहा गया है कि अभ्यास से ज्ञान श्रेयस्कर है; ज्ञान से ध्यान विशेष है और ध्यान से कर्म-फल-त्याग विशेष है। त्याग से तुरत ही शान्ति मिल जाती है। किसी विद्या को सीखने की क्रिया को बारम्बार करने की आदत लगाने को ‘अभ्यास’ कहते हैं। ज्ञान, ध्यान और कर्मफल-त्याग के अतिरिक्त गीता में प्राणायाम आदि और जितने साधन कहे गये हैं, उन सबके अभ्यास का तात्पर्य इस अध्याय (12 वें अध्याय) के बारहवें श्लोक के ‘अभ्यास’ शब्द से विदित होता है; क्योंकि ज्ञान, ध्यान और कर्मफल-त्याग; इन तीनों कर्मों को तो इस श्लोक में क्रियात्मक रूप में लाने की विधि-सी जानी जाती है। इसके अभ्यास तो इनके साथ ही रह जाते हैं। इसलिये उन बचे हुए प्राणायाम आदि के अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, यह जानने में आता है। और जब ज्ञान से ध्यान को विशेष कहा गया है, तब प्राणायाम-योगाभ्यास से ध्यान-योगाभ्यास गीता के अनुकूल विशेष मानने योग्य हो ही जाता है। गीता के भक्तियोग-अध्याय में ध्यान और कर्मफल-त्याग की बड़ाई की गयी है, अतएव गीता के ‘भक्तियोग’ में इन तीनों का अभीष्ट स्थान है, ऐसा जानना ही समुचित है। यदि इन तीनों को वा इनमें से किसी एक को ‘भक्तियोग’ से हटाया जाय तो ‘भक्तियोग’ स्थिति-शून्य हो जायगा। ज्ञान के बिना ध्यान और ध्यान के बिना ज्ञान अभीष्ट फलप्रद (मोक्ष-फल-प्रद) नहीं हो सकते। दोनों का अभ्यास अनिवार्य रूप से करना ही होगा। इसकी पुष्टि के विषय में ‘योगशिखोपनिषद’ तथा ‘योगतत्त्वोपनिषद’ के उद्धरणों को नीचे चिह्नांकित* स्थान में पढ़कर जानिये। ध्यानाभ्यास द्वारा मन पर पूर्णाधिकार प्राप्त किये बिना तथा ध्यानाभ्यास में पूर्णता पाकर ज्ञान में पूर्ण हुए बिना, कर्मफल-त्याग में अचूक और दृढ़ भी कोई नहीं बन सकता। इन तीनों का आपस में धनिष्ठ सम्बन्ध है। इन तीनों के सहित भक्तियोग के साधन के साथ-साथ कर्मयोग का साधन करता हुआ वह सिद्ध हो जायगा। जैसे-जैसे प्रेमी भक्त ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान-ध्यान में तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान और ध्यानाभ्यास में बढ़ता हुआ जाकर अन्त में पूर्ण होगा, वैसे-वैसे वह कर्म-फल-त्याग में भूलों को छोड़ता हुआ अन्त में कर्म-फल-त्याग में पूर्ण होकर, कर्मयोग में सिद्ध होगा। ज्ञान, ध्यान तथा ईश्वर-प्रेम की अवहेलना करके केवल कर्मफल त्यागने का गौरव अनुचित ही नहीं, बल्कि वह ‘आप गये और घालहिं आनहि” के नतीजे पर पहुँचा देगा, यह सुनिश्चित है। ध्यान-योगाभ्यास करने का सिद्धान्त और उस अभ्यास की ओर प्रेरण तथा उसमें मिलनेवाले विघ्नात्मक प्रलोभनों से बचाव पठन-पाठन और मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान पर निर्भर है एवं अनुभूति-युक्त ज्ञान में बढ़ाव और उसके अपरोक्ष रूप की पूर्णता ‘ध्यान-योग’ में वृद्धि और उसकी परिपूर्णता पर निर्भर है।
* [ “ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम्।
योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुदृँढ़मभ्यसेत्।।”
(योगतत्त्वोपनिषद)
अर्थ-योगहीन ज्ञान कैसे मोक्षप्रद हो सकता है? (अर्थात नहीं हो सकता।) यह निश्चित है। ज्ञानहीन योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। अतः मुमुक्षु को चाहिए कि दृढ़ता के साथ ज्ञान और योग दोनों का अभ्यास करे।
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतोह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुदृर्ढमभ्यसेत् ।।”
(योगशिखोपनिषद)
अर्थ-योगहीन ज्ञान भला मोक्षप्रद कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता; इसलिये ज्ञान और योग; दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास मुमुक्षु को करना चाहिये। ]

भगवान बुद्ध की ‘धम्मपद’ नाम्नी पुस्तिका के भिक्खुवग्गो में है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञख्स पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्तिके ।।13।।
अर्थ-प्रज्ञा-विहीन (पुरुष) को ध्यान नहीं (होता) है; ध्यान (एकाग्रता) न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा (दोनों) हैं, वही निर्वाण के समीप है।।13।।
अतएव ‘ध्यान-योग’ गीता का निज, परम प्रिय, अत्यन्त उपयोगी और भक्तियोग साधन का साराधार है।
उपर्युक्त वर्णनानुसार अब यह स्पष्ट हो गया कि भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा राजयोग-ध्यानयोग की ओर ही थी। इसी हेतु उन्होंने इसकी महिमा अर्जुन से इस भाँति कही-
‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।’
(गीता 2/39)
मैंने तुझे सांख्य-सिद्धान्त (तर्कवाद) के अनुसार तेरा यह कर्त्तव्य समझाया है। अब योगवाद के अनुसार समझाता हूँ, सो सुन। इसका आश्रय लेने से तू कर्म-बन्धन को तोड़ सकेगा।
‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।’
(गीता 2/40)
अर्थात इसमें आरम्भ का नाश नहीं होता। विपरीत परिणाम नहीं निकलता। इस धर्म का थोड़ा-सा पालन भी महाभय से बचा लेता है।
भगवान श्री कृष्ण के उपर्युक्त महावाक्य में तीन बातें निगूढ़तम हैं, जिनका जानना नितान्त आवश्यक है।
(1) “ योग के आरम्भ का नाश नहीं होता।” यह कैसे?
(2) “ विपरीत परिणाम नहीं निकलता।” यह विपरीत परिणाम क्या है और वह होता क्यों नहीं है?
(3) “ इसका थोड़ा-सा पालन भी महाभय से बचाता है।” यह महाभय क्या है और योग इससे बचाता कैसे है? आइये, इन वाक्यों पर हम विचार करें।
“ योगारम्भ-रूप संस्कार जबसे अभ्यासी के अन्दर बीजरूप से पड़ जाता है, तबसे वह उसके साथ तबतक वर्त्तमान रहता है, जबतक अभ्यासी को मोक्ष और परम शान्ति न मिल जाय।” (महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज)
संत कबीर साहब भी इसके कायल हैं, उन्होंने दृढ़तापूर्वक ठोस शब्दों में कहा है-
“ भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ सन्त की सन्त ।।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़े जो चोल ।
कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।”
(कबीर-साखी-संग्रह)
योग के प्रतिकूल परिणाम को जानने के पूर्व हम योग के अनुकूल परिणाम-फल को जानें। योग के अनेक अर्थों में ‘युक्त होना’ भी एक अर्थ होने के कारण चेतन आत्मा का परमात्म-स्वरूप से संयुक्त होना अथवा दूसरे शब्दों में, चेतन आत्मा का निज स्वरूप और परमात्म-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होना योग है। यह योग का स्वाभाविक गुण है। साथ ही योग का अन्तिम फल है-आवागमन के चक्र से मुक्त होना वा मोक्ष प्राप्त करना। गो0 तुलसीदास जी को भी यह अंगीकार है कि योग से आत्म-ज्ञान होता है, जो मुक्ति का कारण है। वे कहते हैं-
“ धर्म तें विरति जोग तें ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्ष प्रद वेद बखाना ।।”
अब इसका विपरीत होगा- “ आत्म-ज्ञान का नहीं होना अर्थात ईश्वर का अदर्शन और मोक्ष को अप्राप्ति। फलस्वरूप आवागमन के चक्र में पुनः पुनः परिभ्रमित होते रहना।” किन्तु गीता कहती है- “ योग का विपरीत परिणाम नहीं होता” अर्थात उपर्युक्त के अनुकूल परिणाम होता है। तात्पर्य यह कि योग से ज्ञान-आत्मज्ञान होता है, मिलता है और संसृति-संताप से मुक्ति मिलती है।
ध्यानी वा भक्त योगी का जन्म मनुष्येतर प्राणियों में नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त अन्य कोई भी शरीर भक्ति-बीज को सुरक्षित, अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित कर सकने में समर्थ नहीं है।
कतिपय लोगों को यह मिथ्या धारणा है- “ ऋषभ देव के पुत्र राजा भरत को मृग-योनि में जन्म लेना पड़ा था; क्योंकि राज्यभोगोपरान्त तपश्चरण करते समय मृग में उनकी आसक्ति हो गयी थी। कुछ दिनों तक मृग-शरीर में रहने के पश्चात् वे उस योनि से मुक्त हुए और उनका जन्म अंगिरस गोत्र के ब्राह्मण कुल में हुआ। इस देव-दुर्लभ नर-तन को पाकर वे अब संसार में अनासक्त भाव से रहने लगे। जगत से उपराम चित्त हो जड़वत् रहने के कारण उनका नाम ‘जड़भरत’ पड़ा। इस तरह योगी का जन्म मानवेतर योनियों में भी हो सकता है।”
उनको इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिए कि राजा भरत तपस्वी थे, न कि योगी। तपस्वी और योगी को साधनाओं और उनकी गतियों में महान् अन्तर है। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ है, ऐसा भगवान श्री कृष्ण का मत है। इसलिये स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा है-
‘तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।।‘
(गीता 6/46)
अतएव निःसंशय रूप से जानना चाहिए कि राजयोगी वा ध्यानयोगी को जबतक मुक्ति न मिल जाय, तबतक उन्हें जितने जन्म लेने पड़ेंगे, मनुष्य* शरीर ही मिलते रहेंगे। चाहे वह जन्म लेने की अवधि कितनी भी लम्बी-असंख्य युग-पर्यन्त की ही क्यों न हो।
*[इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्त्रसः ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।4।।
(कठो0 अध्याय 2, वल्ली 3)]
भगवान श्रीकृष्ण से ध्यान-योग के उपदेशमय वाक्यों को सुनकर अर्जुन ने एक बार अपने मन की ओर अवलोकन किया अपने मन की चंचलता को देख वह घबड़ाया कि इस बेलगाम के घोड़े-रूप चपल चित्त का संयमन कैसे किया जा सकेगा और बिना चित्त-संयम के क्या (ध्यान) योग में सफलता संभव है? इसलिये संदेह-मथित होकर वह भगवान श्रीकृष्ण से कहता है-
‘अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।।’
(गीता 6/37)
हे कृष्ण! श्रद्धा (तो) हो, परन्तु पूरा प्रयत्न अथवा संयम न होने के कारण जिसका मन योग से विचल हो जावे, वह योग-सिद्धि न पाकर किस गति को पहुँचता है?
‘कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।’
(गीता 6/38)
हे महाबाहु श्रीकृष्ण! यह पुरुष मोह-ग्रस्त होकर ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में स्थिर न होने के कारण दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाने पर छिन्न-भिन्न बादल के समान (बीच में हो) नष्ट तो नहीं हो जाता?
अर्जुन योग-साधना के प्रथम सोपान पर पैर रखना चाहता है, इसलिये उसका शंकितचित्त वा संशययुक्त होना कोई नयी वा निराली बात नहीं-स्वाभाविक है। वस्तुतः साधक की प्रथमावस्था बड़ी दयनीय होती है। उसकी मनोदशा की उपमा उस बालक से दी जा सकती है, जिसको विद्याध्ययन-हेतु पहले-पहल विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है। वह पढ़ना चाहता है और कुछ-कुछ पढ़ता भी है, किन्तु अन्य बच्चों को खेलते देखकर उसका मन भी बाल-क्रीड़ा की ओर आकर्षित हो-होकर भागता रहता है। फलस्वरूप विद्यालय से अवकाश पाते ही वह उस खेल में पिल पड़ता है। इस भाँति योगी यौगिक साधना करना चाहता है, स्वशवत्थनुसार कुछ-कुछ करता भी है। लेकिन अभ्यास करते हुए भी उसकी मनोधारा विषयों की ओर प्रवाहित होती रहती है। परिणाम-स्वरूप वह विषय-चिन्तन से उसके मन में उन विषयों के प्रति आसक्ति होती है। आसक्ति के कारण उसकी प्राप्ति की कामना उत्पन्न होती है, कामना-पूत्ति होने में विध्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है, और क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है। पुनः मूढ़ता से स्मृति-भ्रम, स्मृति-भ्रम से बुद्धि-नाश और सात्त्विक बुद्धि के नष्ट होने से योगी भ्रष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह कि सात्त्विक बुद्धि-विनाश होने से वह कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर सकता। कर्त्तव्य-निर्णय के बिना अकर्त्तव्य कर्म किया जाता है और योगी योग-अभ्यास में शिथिल हो भोग-अनुरक्त हो जाता है। इसी विषय को भगवान श्रीकृष्ण ने (गी0 2/62-63 में) इस भाँति समझाया है-
“ ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।62।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः ।
स्मृति भ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।63।।
गो0 तुलसीदास जी ने इसको अपने ढंग से-एक दूसरी तरह से कहा है-
“ विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे ।
मुखिहु हृदय का नर बापुरे ।।”
तथा-
“ सतगुरु वैद्य वचन विस्बासा ।
संयम यह न विषय कै आसा ।।”
भक्तियोग, ध्यानयोग वा राजयोग में विषय-चिन्तन को कुपथ्य बताया गया है। यदि कोई रोगी वैद्य-आदेशानुकूल संयम-पूर्वक नहीं रहकर-कुपथ्य करे तो वह कभी स्वास्थ्य-लाभ नहीं कर सकता। बल्कि अस्वस्थावस्था में रहते-रहते संत सद्गुरु-आदेशानसार झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार, इन पंच पापरूप कुपथ्य का करने वाला साधक-योगी अध्यात्म-क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता।
वह योग-भ्रष्ट होकर अधोगति को प्राप्त होगा अर्थात जन्मान्तर में वह उस कुल से च्युत होकर विभिन्न नर-कुलों में जन्म लेगा; क्योंकि जितने भी योग-भ्रष्ट होते हैं, वे सभी एक-से नहीं होते। कोई अति विषयी, कोई बहु विषयी, कोई स्वल्प विषयी और कोई स्वल्पतम विषयी होते हैं। इस हेतु वे अपने-अपने कर्मानुसार ऊँच-नीच कुल में, पवित्र श्रीमान-गृह में जन्म पाते हैं। फिर भी, उनका योग-संस्कार विनष्ट नहीं होता-बना रहता है। समय पाकर उसको सुयोग्य गुरु मिलते हैं और उनकी कृपा से साधन करता हुआ वे श्वपच, शवरी, गो0 तुलसीदास और रविदास (चर्मकार) की तरह प्रभु-पद में लीन होकर आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में इसी विषय-योग-भ्रष्ट की गति और योग की महिमा का प्रतिपादन किया है-
“ पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशक्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गति तात गच्छति ।।40।।”
हे पार्थ! क्या इस लोक में और क्या परलोक में, ऐसे पुरुष का कभी विनाश होता ही नहीं। क्योंकि हे तात! कल्याणकर्म करनेवाले किसी भी पुरुष की दुर्गति नहीं होती।।40।।
“ प्राप्यपुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।41।।”
पुण्यकर्त्ता पुरुषों को मिलनेवाले (स्वर्ग आदि) लोकों को पाकर और (वहाँ) बहुत वर्षों तक निवास करके फिर यह योगभ्रष्ट अर्थात योग से भ्रष्ट हुआ पुरुष पवित्र श्रीमान लोगों के घर में जन्म लेता है।।41।।
“ अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ।।42।।”
अथवा बुद्धिमान योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार का जन्म (इस) लोक में बड़ा दुर्लभ है।।42।।
“ तत्र तं बुद्धिसंयोग लभते पौर्व देहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।43।।”
उसमें अर्थात इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व जन्म के बुद्धि-संस्कार को पाता है और हे कुरुनन्दन! यह उससे अधिक (योग) सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है।।43।।
“ पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्मातिवर्तते ।।44।।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्ध किल्विषः ।
अनेक जन्म संसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।।45।।
अपने पूर्व जन्म के उस अभ्यास से अवश अर्थात इच्छा न रहने पर भी वह (पूर्ण सिद्धि की ओर) खींचा जाता है। जिसे योग की जिज्ञासा* हो गई है, वह भी शब्दब्रह्म के परे चला जाता है। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक उद्योग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ योगी अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर अन्त में उत्तम गति पा लेता है। (44-45)
*[ जबतक योगाभ्यास में कोई पूर्ण नहीं होता है, तबतक वह योग का जिज्ञासु ही है। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज]
“ श्रीमद्भगवद्गीता नाम की अति प्रसिद्ध एवं पवित्र पुस्तिका में भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश है, विद्वान लोग यह जानते ही हैं। और कबीर साहब को भी वे लोग जानते ही हैं। उपर्युक्त श्रीमद्भगवद्गीता और कबीर-साखी-संग्रह प्रभृति के उद्धरणों से योग-भ्रष्ट की गति, उसके भविष्य-जन्मों की बात और अन्तिम फल-प्राप्ति की बातें विदित होती है। कोई भी इनके वचनों को मिथ्या कहकर अनादर नहीं कर सकते। उल्लिखित बातें युक्तिसंगत है।
भक्तियोग का बीज जिस किसी मनुष्य के अन्दर जब पड़ेगा और वह उसका थोड़ा भी साधनाभ्यास करेगा, तो उसके अन्दर उस साधनाभ्यास का संस्कार अवश्य बनेगा। जैसे विद्याभ्यासी का विद्या का संस्कार नहीं मिटता, वैसे ही उसका वह संस्कार नहीं मिटेगा। और आगे पूर्णता की ओर बढ़ेगा, जैसे वृक्ष का अंकुर वृक्ष की पूर्णता की ओर बढ़ता है। वृक्ष का अंकुर टूट सकता है, बर्बाद हो सकता है, उसका पूरा वृक्ष नहीं बने, यह भी सम्भव है। परन्तु हिफाजत रहने से वृक्ष का अंकुर बढ़ते-बढ़ते एक पूर्ण वृक्ष अवश्य बन जाता है।
भक्तियोग-बीज का संस्काररूप अंकुर न तो टूट सकता है, न बर्बाद हो सकता है; क्योंकि यह स्थूल नहीं, सूक्ष्म है और दैवी है। यह योगभ्रष्ट में भी बना ही रहता है। यह मनुष्य-देह के अतिरिक्त पशु-पक्षी आदि किसी देह में बढ़ता हुआ पूर्णता को पहुँचे, कभी सम्भव नहीं है। कोई भी योगभ्रष्ट चाहे उसने इसका अल्प ही अभ्यास क्यों न किया हो, योगाभ्यास के संस्कार के कारण वह मनुष्य-शरीर ही पावेगा। मनुष्य- शरीरधारी के लिये मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त पशु-पक्षी आदि शरीरों में जाना महाभय है। योग का स्वल्प अभ्यास इसी महाभय से बचाता है। जब कोई भी भक्ति-योग का साधक नीच-संग पाकर माया के भोग-विलास की ओर खिंच जाता है तो वह अवश्य ही आचरण-हीन हो जाता है। ऐसे ही आचरणहीन साधक को योगभ्रष्ट कहते हैं। इससे अन्य योगभ्रष्ट हो, ऐसा जानना भूल है।
संत और भगवन्त के वचन को नहीं मानकर उससे विपरीत विचार कहनेवाला मोह में फँसा अज्ञानी है।”
(महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज)
भारतीय आर्ष ग्रन्थ महाभारत के अश्वमेघ पर्व में वर्णित योग की महिमा इस भाँति है- “ योगी अपनी इच्छा के अनुसार देवता, गन्धर्व और मनुष्यों के शरीरों को प्राप्त करता है और जरा-मरण से पृथक होकर न सोचता है, न प्रसन्न होता है। वह इन्द्रियों को स्वाधीन रखनेवाला योगी देवताओं के देव-भाव को भी प्राप्त होता है और इस विनाशवान शरीर को त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को पाता है।”
योग की महिमा बताते हुए महायोगी गोरखनाथ जी ने कहा है कि जीव शरीर के साथ इस संसार में आता है, किन्तु जीवनकाल के अन्त होने पर अर्थात इस जगत से महाप्रयाण के समय योगी की गति को कोई रोक नहीं सकता। अर्थात यमदूत वा यमराज आदि कोई भी उसके मार्ग का अवरोध नहीं कर सकता, क्योंकि योगी की गति इन सबकी गति से तीव्र एवं सूक्ष्मतर होती है।
“ आवे संगे जाइ अकेला। ताथैं गोरख राम रमेला ।।
कापा हंस संगि ह्वै आवा। जाता योगी किनहु न पावा ।।”
‘योग’ में अलौकिक शक्ति है। इससे सभी प्रकार की ऋद्धि, सिद्धि और मुक्ति की प्राप्ति होती है। वे यौगिक अष्ट सिद्धियाँ ये हैं-(1) अणिमा=अदृश्य होने की शक्ति, (2) महिमा=अपने को बहुत बड़ा बना लेने की शक्ति, (3) गरिमा=अपने को जितना भारी वा वजनदार बनना चाहें, उतना भारी बनाने की शक्ति, (4) लघिमा=बहुत हल्का और बहुत छोटा बन जाने को शक्ति, (5) प्राप्ति=सभी इच्छाओं को पूर्ण कर लेने की शक्ति, (6) प्राकाम्य=स्वेच्छानुसार अविलम्ब प्रचुरता-लाभ की शक्ति, (7) ईशित्व=आधिपत्य प्राप्त कर लेने की शक्ति और (8) वशित्व=अपने वश में कर लेने की शक्ति।
योग की महिमा के सम्बन्ध में भगवान बुद्ध ने कहा है- “ मुक्त भिक्षु वा योगी अपनी इच्छानुसार किसी प्रकार के शरीर की कल्पना करके उसको धारण कर सकता है। वह कठिन भूमि को भेदकर उसके भीतर प्रवेश कर सकता है। वह पानी के ऊपर चल सकता है। वह एक से अनेक रूप धारण कर सकता है। वह इच्छानुसार अदृश्य वा दृश्य हो सकता है। वह पक्षी की तरह आकाश में उड़ सकता है। जैसे कुम्हार, सोनार और हाथी-दाँत की कारीगरी करनेवाले तरह-तरह की मूर्त्तियाँ और वस्तुएँ बनाते हैं, उसी प्रकार योगी (मुक्त भिक्षु) भी इच्छानुसार अनेक तरह की रचना कर सकता है।
उसे जन्म-जन्मातर की बात स्मरण हो जाती है। वह जान लेता है कि हम पूर्व जन्मों में किन-किन अवस्थाओं में थे, कहाँ-कहाँ जन्मे, क्या-क्या किया और क्या-क्या भोगा? इत्यादि।
वह सर्वोत्तम ज्ञान-लाभ करके चित्त और धर्म के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करता है। कौन व्यक्ति क्या-क्या कर्म कर रहा है और परिणाम में उसे किस-किस प्रकार का फल भोगना पड़ेगा, इसको वह इस प्रकार देखता है, जैसे कोई ऊँचे मकान के ऊपर से नीचे मनुष्यों को देखता हो कि कौन क्या कर रहा है, किधर से आ रहा है, किधर जा रहा है? इत्यादि।
जिस प्रकार कोई ऊँचे पहाड़ के शिखर पर खड़ा होकर नीचे बहते हुए निर्मल जल के स्त्रोत की ओर देखे, तो उस निर्मल जल के भीतर घोंघा, शंख, कंकड़-पत्थर, कोयला इत्यादि सब वस्तुएँ जैसी की तैसी साफ दिखाई पड़ती है, वैसे ही मुक्त भिक्षु-योगी वासनाओं और तृष्णाओं से घिरे हुए जीवों के कष्टों को भी प्रत्यक्ष अनुभव करता है कि कौन-से कर्म का फल विषमय है, कौन-से कर्म के द्वारा अशान्ति और अनर्थ उत्पन्न होते हैं, मनुष्य के लिये कौन-सा मार्ग दुःख और कण्टकमय है और कौन-से कर्म के द्वारा ये सब निवारित होते हैं। मुक्त भिक्षु ये सब प्रत्यक्ष दर्शन करके कामसक्त, भवासक्त और अविद्यासक्त से पूर्णरूप से विमुक्त हो जाता है। उसकी वर्त्तमान कामना, भविष्यत कल्पना और अज्ञान-जनित मोह; इन तीनों के मूल कारण एकदम दूर हो जाते हैं। वह पुनः पुनः जन्म ग्रहण करने से एकदम निष्कृति पाकर परम ज्ञानमय आनन्दपूर्ण जीवन-लाभ करके नित्य शान्ति लाभ करता है।”
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 2 में लिखा है-
लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च ।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ।।13।।
शरीर का हल्कापन, किसी प्रकार के रोग का न होना, विषयासक्ति की निवृत्ति, शारीरिक वर्ण की उज्जवला, स्वर की मधुरता, शरीर में अच्छी गन्ध* और मल-मूत्र कम होना; इन सबको पहली सिद्धि कहते हैं।
*[ इस दिव्य गन्ध की अनुभूति योगी वा साधक को साधना-काल में होती है। इसकी चर्चा सन्त कबीर साहब, गो0 तुलसीदास जी तथा सन्त तुलसी साहब (हाथरस) प्रभृति सन्तों ने भी की है।
यथा-
“ भजन में होत आनन्द आनन्द।
बरसत विशद अमी के चादर, भींजत है कोई सन्त।
अगर बास जहँ तत की नदिया, मानो धारा गंग।।
कर स्नान मगन होइ बैठे, चढ़त शब्द को रंग।।”
(कबीर साहब)
“ बन्दौं गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।”
(गो0 तुलसी जी)
“ विमल विमल वाणी उठै, अदबुद असमाना हो।
निर्मल बास निवास में, कर-कर कोइ जाना हो।।”
(तुलसी साहब, हाथरस)]
यथैव विम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम् ।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः ।।14।।
जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ जो प्रकाशयुक्त रत्न है, वह भली भाँति धुल जाने पर चमकने लगता है, उसी प्रकार जीवात्मा आत्म-तत्त्व को (योग के द्वारा) भली भाँति प्रत्यक्ष करके कैवल्य अवस्था को प्राप्त कर सब प्रकार के दुःखों से रहित होकर कृतकृत्य हो जाता है।
यदाऽऽत्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपीपमेनेह युक्तः प्रपश्येत् ।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।।15।।
उसके बाद जब वह योगी यहाँ दीपक के सदृश प्रकाशमय आत्म-तत्त्व के द्वारा ब्रह्म-तत्त्व को भली भाँति प्रत्यक्ष देख लेता है, उस समय वह अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्त्वों से विशुद्ध परमदेव परमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है। 


योग की महिमा जानने के अनन्तर भक्त-जिज्ञासुजन के मन में एक उत्कण्ठा उत्पन्न होगी कि जिस योग की इतनी विपुल विमल गाथा गायी गयी, उसकी अभ्यास-विधि क्या है? वेद-उपनिषदादि द्वारा प्रतिपादित योग की सरलतम साधना-पद्धति क्या है अथवा दूसरे शब्दों में सन्त-भगवन्त द्वारा अनुमोदित सहज योग की युक्ति क्या है? काश! यदि जान पाता, तो कितना उत्तम होता! अहोभाग्य होता! आदि। अतएव इस विषय पर स्वल्पतम ही सही, किन्तु प्रकाश डालना अनिवार्य हो जाता है।
वेद-उपनिषदादि अध्यात्म-ग्रन्थों के अध्येता इससे अपरिचित नहीं, वरन् सुपरिचित होंगे कि इन सदग्रन्थों में जिन सरलतम साधनाओं के वर्णन पाये जाते हैं, वे ऐसे हैं जिनके अभ्यन्तर अन्य सभी योगसमुद्र में सरिता की भाँति सहज ही समा जाते हैं। वे योग ये हैं-(1) बुद्धि योग, (2) मानस योग, (3) ज्योति योग और (4) नाद-(सुरत-शब्द) योग। निम्नलिखितमंत्रों में इन चारों योगों का स्पष्टीकरण बहुत ही समीचीन ढंग से किया गया है; यथा-
ओ३म् युञ्जानः प्रथमं सविता श्रियम् ।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्या पृथिव्या अध्याभरत् ।।1।।
(यजुर्वेद, अ0 11)
अर्थात हे मनुष्यो! जगत -प्रसव-कर्त्ता ईश्वर का तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करने के लिये पहले बुद्धियोग (सत्संग), मानस योग (मानस जप और मानस ध्यान) तथा अग्नि की ज्योतियों (दृष्टियोग) का योग कर। योग की इस दृढ़ भूमि को अपने अन्दर अच्छी प्रकार धारण कर।
उदासीनस्ततो भूत्वा सदाभ्यासेन संयमी ।
सन्मनी कारकं सद्यो नादमेवावषारयेत् ।।40।।
(नादविन्दूपनिषद, ऋग्वेद का)
सभी विषयों से उदासीन होकर योगी अपने मनोविकारों को नियंत्रित करके नाद पर अपने ध्यान को निरन्तर अभ्यास द्वारा स्थिर करे, जिससे उन्मनी प्राप्त होती है।
श्रीमद्भगवद्गीता भी इन चारों साधनाओं से शून्य नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के अनेक स्थलों पर इन साधनाओं की चर्चा की है; मात्र चर्चा ही नहीं की, वरन् वर्णित साधनाओं का उन्होंने क्रियात्मक रूप भी दिया है। इनकी झाँकी हम नीचे के श्लोकों में पायँगे।
गी0 4/33 में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप’ कहकर द्रव्यमान यज्ञ से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है और गी0 10/25 में ‘यज्ञानां जप यज्ञोऽस्मि -------------’ कहकर उन्होंने यज्ञों में ‘जपयज्ञ’ को ही अपनी विभूति बताया है। जपयज्ञ का माहात्म्य बतलाते हुए महाराज मनु कहते हैं-
विधि यज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः।
उपांशुः स्याच्छत गुणः साहस्त्रो मानसः स्मृतः।।
(मनु0 2/85)
अर्थात दर्शपौर्णमासरूप कर्म-यज्ञों की अपेक्षा जपयज्ञ दशगुणा श्रेष्ठ है। उपांशुजप सौ गुणा और मानस-जप सहस्त्र गुणा श्रेष्ठ है।
जैसे किसी अट्टालिका पर आरूढ़ होने के लिए भूतल का जन सोपान का सहारा लेता है और उसी अवलम्ब से वह उसकी छत पर पहुँचता है। इसी भाँति भक्त-साधक योग-साधना-सोपान के माध्यम से भक्तिरूपी भव्य भवन की मंजिलों का क्रम-क्रम से अतिक्रमण कर उसकी अन्तिम मंजिल पर प्रतिष्ठित होता है अर्थात भक्ति में पूर्ण होता है।
साधना का प्रथम सोपान है जप और दूसरा है ध्यान। तात्पर्य यह कि मानस-जप के बाद मानस-ध्यान की सीढ़ी आती है। इस हेतु भगवान श्रीकृष्ण जप-यज्ञ वा जप-योग के पश्चात् गी0 12-6/7 में मानस ध्यान की विधि तथा उसके फल का वर्णन इस भाँति करते हैं-
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन गां ध्यायन्त उपासते ।।6।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।7।।
हे पार्थ! जो मुझमें परायण रहकर सब कर्म मुझे समर्पण करके, एकनिष्ठा से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं और मुझमें जिनका चित्त लगा हुआ है, उन्हें मैं मृत्युरूपी संसार-सागर से झट पार कर लेता हूँ।
कतिपय सज्जनों की यह मिथ्या धारणा है कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब निर्गुण-उपासक संत थे। इन संतों ने गो0 तुलसीदास जी और भक्तप्रवर सूरदास जी की भाँति अपनी साधना में स्थूल सगुणोपासना को स्थान नहीं दिया है। अतएव उनके भ्रम-निवारणार्थ उन सन्तों के स्थूल सगुणोपासना-सम्बन्धी शब्द यहाँ उपस्थित किये जायँ, तो अप्रासंगिक नहीं होगा।
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नयन चकोर ।
पलक पलक निरखत रहौ, गुरु मूरति की ओर ।।
(कबीर साहब)
और कबीर साहब की यह साखी तो प्रसिद्ध ही है कि-
“ गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो लखाय ।।”
गुरु नानकदेव जी की वाणी में पढ़िये-
गुरु की मूरति मन महि धियानु । गुरु के सबद मन्त्र मनु मानु ।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ । गुरु पारब्रह्म सदा नमस्कारउ ।।
अन्तरि गुरु आराधना, जिहवा जपि गुरु नाउ ।
नेत्री सतगुरु पेखणा, श्रवणी सुनना गुरु नाउ ।।
सतिगुरु की मूरति हिरदे बसाए। जो ईछै सोई फलु पाए ।।
गुरु सेवा बिन भगति न होई। अनेक जतन करै जो कोई ।।
उपर्युक्त उद्धरणों से यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि गुरु का स्थूल रूप तथा उनके स्थूल नाम, सगुण हैं वा निर्गुण। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी और संत सूरदास जी ने भगवान श्रीराम और भगवान श्री कृष्ण को जिस उच्चासन पर आसीन किया, उस पर संत कबीर और गुरु नानक ने गुरु को प्रतिष्ठित किया। फिर भी, गो0 तुलसीदास जी और सूरदास जी ने भी उन अवतारी पुरुषों से गुरु की कम प्रतिष्ठा नहीं की, जैसा कि उनकी वाणियों से विदित होता है; यथा-
“ श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।”
तथा-
“ बन्दौ गुरु पद कंज, कृपासिन्धु नर रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।”
‘गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई।’
(गो0 तुलसीदास जी)
“ गुरु बिन ऐसी कौन करै ।
भव सागर से बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै।।”
“ अपुनपो आपुन ही में पायो ।
शब्दहि शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।” इत्यादि
(सूरदासजी महाराज)
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ही नहीं, ज्ञानी भक्त उद्धव को भी ध्यानयोग का उपदेश दिया था। श्रीमद्भागवतान्तर्गत एकादश स्कन्ध के गंभीर ज्ञान में अवगाहन करने पर उसमें मानस-ध्यान, दृष्टि साधन और नादानुसन्धान का भी स्पष्ट संकेत मिलता है।
भगवान श्रीकृष्ण से उद्धव जी जिज्ञासा करते हैं-‘हे कमल-नयन! अब आप मुझे यह बतलाइये कि मुमुक्षुजन को आपका ध्यान किस प्रकार, किस रूप में और किस भाव में करना चाहिये?
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
सम आसन आसीनः सम कायो यथा सुखम् ।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः ।।32।।
(अ0 14)
हे उद्धव! सुख-पूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे। हाथ को नीचे-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को अपने नासिकाग्र में स्थिर करे।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाकृष्य तन्मनः ।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।।41।।
बुद्धिमान जन को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धिरूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे।
तत्सर्वव्यापकं चित्तामाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।।43।।
फैले हुए चित्त को सब ओर से खीचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।
तत्र लब्ध पदै चित्तामाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।44।।
मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटा कर आकाश* में स्थिर करे। तदन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।
*[ भगवान श्री कृष्ण ने आकाश में चित्त स्थिर करने का आदेश दिया है और सन्त कबीर साहब कहते हैं-शून्य ध्यान से सबका मन राजी हो जाता है।
“ शून्य ध्यान सबके मनमाना। तुम बैठो आतम असथाना।।”
(कबीर साहब)]
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11 अध्याय 14 श्लोक 43-44 में मानस-ध्यान और दृष्टि साधन करने की विधि का वर्णन है और उसके पूर्व भी उसी स्कन्ध और उसी अध्याय के 32 वें श्लोक में दृष्टि-साधन-दृष्टि-योग की क्रिया बतलायी गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता अ0 6 श्लोक 13-14 से उसका कितना साम्य है, मिलाकर देखिये।
समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।13।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।।14।।
धड़, गरदन और सिर को एक सीध में अचल रखकर, स्थिर रहकर, इधर-उधर न देखता हुआ अपने नासिकाग्र पर निगाह डटाकर पूर्ण शान्ति से, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य* में दृढ़ रकहर, मन को मारकर मुझमें परायण हुआ योगी मेरा ध्यान करता हुआ बैठे।
*[ ब्रह्मचर्य-व्रत का अर्थ केवल वीर्यसंग्रह नहीं है, साथ ही ब्रह्म को प्राप्त करने लिए आवश्यक अहिंसादि सभी व्रत हैं। (महात्मा गाँधी)]
अब उपर्युक्त श्लोकों की तुलना जाबालोपनिषद के निम्नलिखित श्लोकों से कीजिये।
आरभ्य चासनं पश्चात्प्राघ्मुखोदघमुखोऽपिवा ।
समग्रीवशिरः कायः संवृतास्यः सुनिश्चलः ।।5।।
नासाग्रे शशभृद्विम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः ।।6।।
(खण्ड-5)
आसन आरम्भ करके पूर्व या उत्तर मुख होकर पीछे सिर, गला और शरीर को सीधा करके मुख बन्द करके अच्छी तरह निश्चल होवे। नासिका के आगे चन्द्र-बिम्ब-विन्दु के मध्य में उस तुरीय और चूते हुए अमृत को अच्छी तरह समाधिस्थ होकर आँखों से देखे।
वर्णित आशय के आसन और ध्यान के सम्बन्ध में महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के अनुभूत वचन भी पठनीय है-
घर गर मस्तक सीध साधि, आसन आसीना ।
बैठिके चखु मुख मूनि, इष्ट मानस जप ध्याना ।।
प्रेम नेम सों करत-करत, मन शुद्ध हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ, अब आगे को कहुँ, सुनो दे चित सों ।।
जहँ-जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ, औरो आगे बढ़िय, चढ़िय धर धारा धरि के ।।
धर-धर धरकी धार, सार अति चेतना ।
धर-धर में धर का खेल, जतन करि देखना ।।
धर में सुष्मन घाट, दृष्टि ठहराइ के।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, यहि घाटे चढ़ि जाव, धराधर धाइ के ।।
शरीर, ग्रीवा और मस्तक को सीधा करके बैठने से मेरुदण्ड सीधा रहता है। इससे श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ती है। श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ने से मन कम चञ्चल होता है और मन कम चञ्चल होने से भजन बनता है।
-महर्षि मेँहीँ
वेद, उपनिषद, श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित साधनाओं का सन्तों की साधना से कितना सामञ्जस्य है, नीचे लिखी वाणियों से तुलना कीजिये।
“ नैनों की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैना अँधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।”
(कबीर साहब)
“ एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहिअै सोई ।
गुर परसादी उरध कमल विगास ।
अंधकार महि भइआ प्रकास ।।”
(गुरु नानक देव)
“ श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।
दलन मोह तम सो सु प्रकासू। बड़े भाग उर आवहिँ जासू ।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिँ दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहिं सिन्धु सरित सर भारी। रूप विन्दु जल होहिं सुखारी ।।”
(गो0 तुलसीदास जी)
“ नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास ।
अविनासी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति परकास ।।”
(सूरदास जी महाराज)
बाबा नानक के उपर्युक्त वचन में युग दृष्टि-धार को सम करने का आदेश है और वे इस क्रिया के करनेवाले को ‘योगी’ की संज्ञा देते हैं। साथ ही, उनका यह भी कथन है कि गुरु-कृपा से मण्डल खुल जाता है और अन्धकार में प्रकाश हो जाता है। बाबा नानक की वाणी से मिलती-जुलती बातें हम पवित्र बाइबिल में भी पाते हैं; यथा-
“The light of the body is the eye: therefore when thine eye is single, thy whole body also is full of light;”
St. Luka. Chapter 11-34 (New Testament & Psalms. Page 107)
अर्थात शरीर का दीपक आँख है, इसलिये यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सब शरीर उजियाला होगा।
सन्त धरनी दास जी महाराज कहते हैं-
धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर ।
सहजै चन्दा ऊगिहै, भवन होइ उजियार ।।

योगवशिष्ठ में दृष्टि-योग की साधना इस भाँति वर्णित है-
“ नासाग्र से द्वादशांगुल पर बाहर शुद्ध आकाश में संवित् को लीन करना (5/78/27),
भ्रुवों के मध्य में दृष्टि लीन करके शुद्ध चेतन में स्थित होना (5/78/29) -----------------”
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 13 में कथित ‘नासिकाग्र’ के सम्बन्ध में महात्मा गाँधी जी ने कहा है- “ नासिकाग्र से मतलब है भृकुटी के बीच का भाग।”
यहाँ नासिकाग्र, नासाग्र, भ्रुवोर्मध्य, भृकुटी प्रभृति प्रयुक्त शब्दों के सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट कर देना आवश्यक है; क्योंकि इन शब्दों की भूलभुलैया में पड़े लोग स्वयं तो भ्रमित हैं ही, साथ ही भोले-भाले जन को भी वे उसी बाट के बटोही बनाने में प्रयत्नशील हैं।
संत-साधना-पथ सरल, सुगम एवं सुस्पष्ट होने पर भी इससे अनभिज्ञ जन अटकलबाजियाँ किया करते हैं। इतना ही नहीं, वे गो0 तुलसीदास जी महाराज की इस उक्ति “आपु गये और घालहिं आनहि” को भी पूर्णरूपेण चरितार्थ करते हैं। जैसे सद्ग्रन्थों में वर्णित नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य, भृकुटी के बीच आदि के सम्बन्ध में कोई तो भौंओं के बीच के स्थान को, तो कोई नाक के ऊर्ध्व भाग को और कोई नासिका के अधोभाग को बतलाते हैं। किन्तु स्मरण रहे कि श्रीमद्भगवद्गीता अ0 6/13 में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ अर्थात नासिका के आगे अवलोकन करने का संकेत किया है, न कि किसी भाग-विशेष का। बल्कि ‘दिशश्चानवलोकयन्य्’ कहकर भगवान ने इसको विशेष स्पष्ट कर दिया है कि किसी दिशा का अवलोकन नहीं करे। जबकि किसी भी दिशा को देखने की सख्त मनाही है, तब नाक के नीचे वा ऊपर-भाग का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता है; क्योंकि दिशाएँ दश हैं, जिनके अन्दर ऊपर और नीचे; ये दो दिशाएँ स्वाभाविक ही आ जाती हैं। अतएव मूल श्लोक के व्यतिरिक्त ‘भाग’ शब्द को अपनी ओर से जोड़कर अर्थ करना अनर्थ तो है ही और यदि उसके अनुकूल नाक के नीचे वा ऊपरी भाग का ध्यान किया जाय, तो इससे अधिक भयंकर भूल और हो ही क्या सकती है? नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य आदि शब्द संकेत मात्र हैं। जैसा कि आप इस लघु कथा में एक संकेत पायेंगे। कहते हैं कि-
एक सम्पन्न श्रेष्ठी-पुत्र को वाणिज्यार्थ विदेश गये वर्षों बीत गये। इधर श्रेष्ठी अस्वस्थ होने लगे। शनैः शनैः इनकी अस्वस्थता बढ़ती गयी। जब श्रेष्ठी ने समझा कि अब मेरी अन्तिम घड़ी निकट है, तो उन्होंने अपने पुत्र को पत्र लिखा- “ प्रिय वत्स, अब मेरे परलोक सिंधारने का समय निकट आ गया है। यदि तुम मेरे जीवन-काल में मुझसे भेंट कर सको, तो मैं तुम्हें स्वयं अपनी अर्जित सम्पत्ति की कुंजी दे दूँ। अन्यथा मेरे परलोक पधारने के बाद आने पर स्मरण रखना कि मैंने स्थानीय शिवालय के त्रिशूल पर माघ महीने की अमावस तिथि को बारह बजे दिन में अपनी निधि रख दी है, उसे सँभाल लेना। यदि तुम इस रहस्य को नहीं समझ सको, तो अपने मुनीम से जिज्ञासा कर हृदयंगम कर लेना।”
श्रेष्ठी-पुत्र के स्वगृह आगमन से पूर्व ही श्रेष्ठी का शरीरान्त हो गया। श्रेष्ठी-पुत्र मन-ही-मन सोचता-विचारता और आश्चर्यित होता कि क्या त्रिशूल पर इतनी सम्पत्ति रह सकती है! यदि नहीं, तो क्या पूज्य पिताजी ने मिथ्या भाषण किया है? कदापि नहीं। अन्त में किसी निष्कर्ष पर नहीं आ सकने पर वह उक्त मुनीम के पास पहुँचा और अपने पूज्य पिता जी का पत्र दिखलाकर उक्त सम्पत्ति का रहस्य पूछा। मुनीम ने उस भेद का स्पष्टीकरण करते हुए बताया-माघ महीने की अमावस्या तिथि के बारह बजे दिन में स्थानीय शिवालय के त्रिशूल की छाया जहाँ पड़ती हो, वहाँ खोदो, धन मिल जायगा। श्रेष्ठी-पुत्र ने मुनीम द्वारा निर्देशित स्थान पर समयोचित उपस्थित होकर खुदाई की और वह गुप्त निधि पाकर कृतकृत्य हुआ।
यह तो एक सामान्य गाथा है, किन्तु वस्तुतः बात तो यह है कि सन्त-महात्मागण श्रेष्ठी है और मुमुक्षुजन श्रेष्ठी के पुत्र हैं, जो परमात्म-स्वरूप-रूपनिधि के प्राप्त्यर्थ देश-विदेश यत्र-यत्र भटकते फिरते हैं। सन्त सद्गुरु श्रेष्ठी के जीवनकाल में जो कोई मुमुक्षु उनसे मिलते हैं, उन्हें वे ईश्वररूपी निधि पाने की कुंजी* अर्थात सद्युक्ति स्वयं बता देते हैं। अन्यथा स्वरचित पुस्तकों-ग्रन्थों में वे अपनी रहस्यमयी वाणियाँ छोड़ जाते हैं। फलस्वरूप उनके परवर्त्ती मुमुक्षुजन उनकी वाणियों को पढ़कर आश्चर्यचकित होते हैं और समझ नहीं पाते कि यथार्थ बात-रहस्य क्या है। अनेक खोज-ढूँढ़ के पश्चात् जब उनको उक्त सन्त सद्गुरु के सत् सेवक-रूपी मुनीम मिल जाते हैं, तो ग्रन्थ में वर्णित रहस्य का उद्घाटन हो पाता है। अर्थात सर्वेश्वर-रूप सम्पत्ति को पाने का पता मिल जाता है। वे समझाते हैं कि स्थानीय शिवालय तुम्हारा यह मानव-शरीर ही है। “ विन्दुनाद महालिगं शिवशक्ति निकेतनम्। देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।” (योग-शिखोप0) शिवालय का त्रिशूल-तुम्हारे शरीरस्थ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाम्नी त्रिधारा है। इन तीनों धाराओं के मिलन-स्थान पर खोदने अर्थात दृष्टि-साधन क्रिया द्वारा खोजने से परम प्रभु सर्वेश्वर-रूप निधि का पता मिलता है। इसी स्थान को नासिकाग्र, नासिका, भ्रुवोर्मध्य, भृकुटी के बीच आदि नामों से संकेत किया गया है। किन्तु इतने स्पष्टीकरण के बाबजूद इनके यर्थाथ ज्ञान के लिये क्रियावान निर्देशक की नितान्त आवश्यकता है। जो साधु-सन्तों की शरण जाकर उनसे साधना की सद्युक्ति पाकर निरंतर साधना करते हैं, वे परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाते हैं।
*[ कहैं कबीर निर्भय हो हंसा, कुंजी बता खौं ताला खुलन की।]
किन्तु इसकी यथार्थ विधि से रहित हो आँखों और उनके इर्द-गिर्द को दबाकर (divine light) दिव्य ज्योति का प्रत्यक्षीकरण कराने वाले स्वयं भूल में हैं, वे अन्य को क्या प्रकाश दिखा सकते हैं? यह तो वैसी ही बात है कि ‘पानी मिलै न आपको, औरन बकसत क्षीर। आपन मन स्थिर नहीं, और बँधावत धीर।।” साधना की सही विधि से सुदूर रहकर अटकलबाजियाँ करने का कितना भयावह परिणाम होगा, मैं कह नहीं सकता। परम संत बाबा देवी साहब के वचनों में पढ़िये- “ दृष्टि साधन करने के सैकड़ों गुर और अमल हैं कि जो भारतवर्ष और दूसरे मुल्कों में जारी है। लेकिन बाजे इनमें से ऐसे हैं कि जिनसे आँख के दोनों गोले टेढ़े पड़ जाते हैं। और बाजे ऐसे हैं कि जिनसे आँख जाती रहती है और बाजे कायदे ऐसे भी हैं, जिनसे आँख की दोनों पुतलियों को, जिनमें होकर रोशनी बाहर को निकलती है, खराब कर देते हैं, जिनसे फिर आँखों से धुँधला दिखाई पड़ता है और चाहे तमाम उमर हकीम, वैद्य, डॉक्टर इलाज करें, किसी तरह पुतलियाँ दुरुस्त नहीं होती। दृष्टि से अभ्यास करने का वह कायदा है, जिसको आँख और आँख के गोले से कुछ तआल्लुक नहीं है और न दृष्टि के मानी आँख और आँख के गोले के हैं, जिनसे कि वह नुकसान होते हैं जो ऊपर बयान किये गये हैं।
दृष्टि निगाह को कहते हैं कि जो मांस-खून की बनी हुई नहीं है। मनुष्य में यह निगाह ऐसी बड़ी ताकतवर चीज है कि जिसने बड़े-बड़े छिपे साइन्स और विद्याओं को निकालकर दुनिया में जाहिर किया है और सिद्धि वगैरह की असलियत और मसालों का पता, जिससे कि वह हो सकती है; सिवाय इसके और किसी से नहीं लग सकता है। योग-विद्या के सीखने का दृष्टि पहला कायदा है, इसके अभ्यास करने का गुर ऐसा उमदा है, जिससे स्थूल शरीर के किसी हिस्से की तकलीफ नहीं होती है और अभ्यासी इसके अभ्यास से उन निशानों को जिसको ईश्वर वा खुदा की आकाशी और आसमानी ग्रन्थों और किताबों में सबसे बड़ा बतलाया है, जल्द पाकर मालूम कर लेता है और फिर तमाम दुनिया के सिद्धान्त और असूल अभ्यासी के रू-ब-रू हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि जो तमाम उमर ग्रन्थों एवं पोथियों के पढ़ने और सुनने से हासिल नहीं होते। लेकिन दृष्टि उस जगह पहुँच सकती है, आगे उसके नहीं जा सकती, जहाँ कि रूप और रेखा कुछ नहीं है और जहाँ से कि मोक्ष होता है। सन्तों के मत में सबसे बड़ा पदार्थ मोक्ष है और उस जगह तक दृष्टि नहीं जा सकती। इसलिये शब्द का दूसरा कायदा वहाँ पहुँचने लिये उपदेश किया गया है।”
वर्णित वेदाधार, उपनिषद एवं सन्तवचनानुसार दृष्टियोग- साधना के पश्चात् सुरत-शब्द-योग की सीढ़ी आती है। हम देखना चाहेंगे कि इस शब्द-योग की चर्चा से गीता कहीं रिक्त तो नहीं है? स्मरण रहे, सद्ग्रंथों में शब्द-योग की साधना की ‘शब्दब्रह्म’ की उपासना कहकर भी अभिहित किया गया है। उपनिषदों में स्थल-स्थल पर शब्द-ब्रह्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है और श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भी हम शब्द-ब्रह्म की महत्ता का वर्णन पाते हैं। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
“ जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्त्तते ।”
अर्थात योग का जिज्ञासु भी ‘शब्द-ब्रह्म’ के परे चला जाता है। यहाँ ‘शब्द-ब्रह्म’ का अर्थ कुछ लोगों ने ‘वेद’ को आधार बनाकर ‘योग का जिज्ञासु भी सकाम वैदिक कर्म करनेवाले को स्थिति पार कर जाता है’ भी किया है। किन्तु इसके अतिरिक्त ‘शब्द-ब्रह्म’ के सम्बन्ध में इस भाँति भी समझना चाहिये। योगशिखोपनिषद में ‘शब्द-ब्रह्म’ की व्याख्या इस प्रकार है-
“ अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।” (अध्याय-3)
अर्थात अक्षर (अविनाशी) परम नाद को ‘शब्द-ब्रह्म’ कहते हैं। ब्रह्मविन्दूपनिषद भी इसके कायल है कि दो विद्याओं में एक तो ‘शब्द-ब्रह्म’ है और दूसरा ‘परब्रह्म’। ‘शब्द-ब्रह्म’ में जो निपुण हो जाता है, वह ‘परब्रह्म’ को प्राप्त करता है।
“ द्वे विद्ये वेदितथ्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।17।।”
‘शब्द-ब्रह्म’ विषयक वर्णन हम श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भी पाते हैं। जहाँ विलक्षण विशेषता के साथ उसकी गम्भीरता भी बतलायी गई है।
“ शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्य समुद्रवत् ।।36।।”
‘शब्द-ब्रह्म’ अत्यन्त दुर्बोध है। वह प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय तीन प्रकार का है तथा समुद्र के समान अनन्त-पार, गम्भीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है।
चत्वारि शृंगा त्रयोऽअस्य पादा द्वेशीर्षे सप्तहस्ता सोऽअस्य ।
त्रिघा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्यांऽआविवेश ।।91।।
(यजुर्वेद अध्याय 17)
इस मन्त्र की व्याख्या में महर्षि पतंजलि ने कहा है कि शब्दरूपी महान देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है अर्थात परब्रह्म स्वरूप और अन्तर्यामि-रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। ----शब्दरूप ब्रह्म आदि और अन्त-रहित है। ----इसी शब्द-ब्रह्म से जगत की रचना होती है। ----जो पुरुष शब्द-ब्रह्म को ठीक-ठीक अवगत कर लेता है, वह परब्रह्म को पाता है।
शब्द-ब्रह्म-विषयक वर्णन से सम्पूर्ण सन्तवाणी ओत-प्रोत है। सन्तों की वाणियों से तो यही प्रतीत होता है कि शब्द-साधना के समान परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति का अन्य कोई प्रशस्त साधन नहीं। यदि कहा जाय कि शब्द-साधना के अतिरिक्त सर्वेश्वर-प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। निम्नलिखित वाणियों से सन्तों की शब्द-साधना- सम्बन्धी परिचय प्राप्त कीजिये।
सब्द खोजि मन बस करै, सहज जोग है येहि ।
सत्त सब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
सब्द सब्द बहु अन्तरा, सार सब्द चित्त देय ।
जा सब्दै साहब मिलै, सोइ सब्द गहि लेय ।।
यही बड़ाई सब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
बिना सब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय ।।
(कबीर साहब)
सन्त कबीर साहब ने नादानुसन्धान को ‘सहज योग’ कहा है और सन्त दादू दयाल जी ने उसी को ‘सहज की डोरी’ कहकर तद्विषयक विशद वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि इस शब्द-साधना के द्वारा ही मनोनिग्रह होता है, सहज में समाधि लगती है और अमरपुर में निवास होता है। किन्तु इसमें सन्त-सद्गुरु की नितान्त आवश्यकता है, जिनकी कृपा से भक्ति-मुक्ति-सह स्वाभाविक ही परमात्म-दर्शन होते हैं।
जोग समाधि सुख सुरति सों, सहजैं-सहजैं आव ।
मुक्ता द्वारा महल का इहै भगति का भाव ।।
क्यों करि उलटा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
‘दादू’ डोरि सहज की, यों आणै घेरि घेरि ।।
अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।
जोति सरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ।।
सतगुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भण्डार ।
‘दादू’ सहजै देखिये, साहिब का दीदार ।।
(सन्त दादूदयाल जी)
श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥12॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥13॥
इन्द्रियों के सब द्वारों को रोककर, मन को हृदय में स्थिर करके मस्तक में प्राण को धारण करके, समाधिस्थ होकर ‘ॐ’ ऐसे मेरे एकाक्षर ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ जो मनुष्य देह छोड़ता है, वह परम गति पाता है। कतिपय सज्जनों ने ‘ओमित्येकाक्षरं -----स्मरण्य्’ का अर्थ ‘ॐ’ का जप करना भी किया है। परन्तु कहने की आवश्यकता नहीं, यह सर्व-साधारण जानते हैं कि वर्णात्मक ‘ॐ’ का जप जाग्रत अवस्था में होता है। यहाँ जिस ‘ॐ’ की चर्चा है, वह वर्णात्मक ‘ॐ’ हो नहीं सकता, ध्वन्यात्मक है; क्योंकि इन्द्रियों के सब द्वारों को रोकने, मन को हृदय में स्थिर करने, प्राण को मस्तक में धारण करने और समाधिस्थ होनेवाले को कौन-सी अवस्था रहेगी; जाग्रत्, स्वप्न वा सुषुप्ति? इन श्लोकों में जिन साधनाओं और उनके फलस्वरूप परम गति प्राप्त होने की बात भगवान ने कही है, वह गति तीन अवस्थाओं में रहनेवाले को कदापि हो नहीं सकती, यह तो चौथी अवस्था-तुरीय में रह कर भजन-चिन्तन करनेवाले के लिये अपेक्षित है। गो0 तुलसीदास जी ने स्पष्ट कहा है- “ तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त। मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त।”
विचारणीय है कि तुरीय अवस्था में वर्णात्मक ‘ॐ’ वा किसी भी वर्णात्मक शब्द का जप नहीं हो सकता। महाप्राज्ञ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी ने इस सम्बन्ध में कहा है कि “ तेरहवें श्लोक से प्रकट होता है कि यहाँ ओंकारोपासना ही उद्दिष्ट है।”
(गीता-रहस्य)
ओंकारोपासना को स्वामी भूमानन्द जी महाराज ने प्रणव का साधन बताया है। उन्होंने कहा है- “ वर्त्तमान युग में प्रणव के स्वरूप को बहुत थोड़े ही लोग जानते हैं। अधिक लोग तो ॐकार के उच्चारण को या मन-ही-मन जप करने को प्रणव-साधन समझते हैं। परन्तु उपनिषद के कथनानुसार ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वर या व्यञ्जन नहीं है और वह कण्ठ, होंठ, नासिका, जीभ, दाँत, तालु और मूर्द्धा आदि के योग से या इनके घात-प्रतिघात से उच्चरित नहीं होता।
“अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठ ताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।”
(अमृतनाद उपनिषद)
उपनिषदादि में इस ध्वनि को अनाहतनाद कहा गया है। तन्त्र विशेष में इसका नाम है- ‘अकृत नाद’। जिस साधन का अभ्यास करने से यह नाद स्वतः ही उत्पन्न होता है, वही इसका वास्तविक साधन है और वही यथार्थ उपाय है। अन्यान्य साधन तो अनुपाय ही हैं- “ अनुपायाः प्रकीत्तिताः।”
दृष्टि-साधन-क्रिया-द्वारा साधक तीन अवस्थाओं का अतिक्रमण कर चौथी अवस्था में अवस्थित होता है। इस (तुरीय) अवस्था के आरम्भ से ही उसे विविध नादों-अनहद नादों की अनुभूति होती है। जब साधक तुरीय की चरमावस्था में पहुँचता है, तब वहाँ वह ‘ॐ’ ब्रह्म वा सारशब्द की उपासना वा ध्यान करता है और उसी के सहारे वह सर्वेश्वर को साक्षात् कर कृतकृत्य हो जाता है।
इसी सारशब्द वा आदिनाम के लिये सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह ।।”
तथा-
“शब्द गह्यो जिव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।।”
(कबीर साहब)
“चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्द लोक लै जाई ।।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।”
(दरिया साहब, बिहारी)
शब्द-विषयक वर्णन मात्र भारतीय सन्तों वा सद्ग्रन्थों में ही नहीं, ईसाई सन्तों और उनके पवित्र ग्रन्थ बाइबिल में भी है। प्राच्य और पाश्चात्य सभी देशों के सन्तों को आदि में ‘शब्द’ और उस आदि ‘शब्द’ से सृष्टि का होना अंगीकार है। डॉ0 श्री सम्पूर्णानन्द जी के शब्दों में हम कह सकेंगे- “ ईसाई धर्म की मूल पुस्तक तो बाइबिल है, अतः उसमें भी योग की ओर संकेत है। यह संकेत पूर्व भाग में भी है और उत्तर भाग में भी। उत्तर भाग में विशेष रूप से ऐसी बातें उन अध्यायों में पायी जाती है, जो ईसा के शिष्य जॉन द्वारा संकलित हुए हैं। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ध्वनि इन वाक्यों से निकलती है। ईश्वर कहता है, ‘मैं अल्फा और ओमेगा (आदि और अन्त) हूँ।’ और ईसा कहते हैं-‘मैं और मेरे पिता (जीव और ब्रह्म) एक है।’ हमारे यहाँ प्राण, आदिशब्द, प्रणव, ॐकार से ही सृष्टि का विकास माना गया है। ॐकार ईश्वर से अभिन्न है। शब्द के बाद तब तेज का आविर्भाव होता है। बाइबिल में जॉन कहते हैं- “आरम्भ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।” John 1:1 (NIV)
"In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God." St. John Chapter I/I.


सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
शब्दै माया जग उतपानी, शब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।”
गुरु नानकदेव जी कहते हैं-
“ शब्द तत्त्व वीर्य संसार । शब्द निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।
सारी सृष्टि शब्द के पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
सन्त दादू दयाल जी कहते हैं-
“एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगै पीछे तो करै, जे बलहीणा होइ ।।
शब्दै बन्ध्या सब रहै, शब्दै सब ही जाइ ।
शब्दै ही सब ऊपजै, शब्दै सबै समाइ ।।”
गो0 तुलसीदास जी ने आदिशब्द वा सत्शब्द को रामनाम कहकर प्रणाम किया है और बताया है कि यह रामनाम चन्द्र, सूर्य और अग्नि का कारण है। इतना ही नहीं, यह ब्रह्मा, विष्णु और महेशमय है, वेद का प्राण है, निर्गुण है, निरुपम है और गुण का भण्डार भी है।
“बन्दौं राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।”
श्रीमदाद्य शंकराचार्य जी ने भी स्वरचित ग्रन्थ ‘योगतारावलि’ में नादानुसन्धान का अभिनन्दन और अभिनन्दन करते हुए कहा है- “ योग-शास्त्र के प्रवर्त्तक भगवान शिव जी ने मनोलय के सवा लाख साधन बतलाये हैं। उन सबमें नादानुसन्धान सुलभ और श्रेष्ठ है। हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है। आप परमपद में स्थित कराते है। आपके प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जायेंगे।”
योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो, एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।
“सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसन्धान समाधिमेंकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।”
“नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं बिलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।”
तथा-
“सर्व चिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योग साम्राज्यमिच्छता ।।”
नादानुसन्धान की महिमा बताते हुए नादविन्दूपनिषद में लिखा है-
“ब्रह्म प्रणव सन्धानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापार्येऽशुमानिव ।।30।।”
प्रणव-ब्रह्म के योग (नादानुसन्धान-योग) से वह नाद प्रकट होता है, जो ज्योतिर्मय और कल्याणकारी है। और वह बादल के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जैसे सूर्य चमकता है, वैसे ही आत्मा स्वयं प्रकाशित होता है।
प्रणवोपासना के लिये मुण्डकोपनिषद में लिखा है-
प्रणवो धनुः शरोह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।4।।
(मुण्डक 2, खण्ड 2)
प्रणव अर्थात ओंकर ही धनुष है, आत्मा ही वाण है और परब्रह्म परमेश्वर ही उसका लक्ष्य है। वह प्रमाद-रहित मनुष्य-द्वारा ही बींधे जाने योग्य है। अतः वाण की तरह उस लक्ष्य में तन्मय हो जाना चाहिये।
जैसे सरिता-सर में तैरता प्राणी पानी के सहारे पृथ्वी पर आता है, उसी भाँति नादानुसन्धान वा शब्द-साधना के सहारे साधक “निःशब्दं परमं पदम्” में पहुँचता है अर्थात परमात्म-स्वरूप को प्राप्त करता है। नादविन्दूपनिषद में नाद की महिमा का कथन करते हुए ऋषि ने कहा है-शब्द-ब्रह्म के परे निःशब्द परम पद है और वही परब्रह्म परमात्मा है।
तावदाकाश संकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते ।
निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीयते ।।47।।
अर्थात जबतक आकाश-संकल्प है, तबतक नाद वा शब्द की स्थिति रहती है। उसके परे अशब्द परब्रह्म परमात्मा है।
नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी ।
सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।48।।
जबतक नाद की स्थिति रहती है, तबतक मन रहता है। नाद के विलीन होने पर मन उन्मनी को प्राप्त होता है। (अर्थात मन संकल्प-विकल्प त्याग कर लय हो जाता है)। नाद अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) में विलीन हो जाता है और अशब्द परम पद है।
भगवान श्री कृष्ण के महावाक्य “जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्माति वर्तते” अर्थात योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म के परे चला जाता है, का यह रहस्य है। 


परमात्म-प्राप्ति के लिये यौगिक साधना अनिवार्य है। इन योगों में मुख्यता जपयोग और ध्यानयोग का है। जप के प्रकार तीन हैं-वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप में जप के उच्चरित शब्द स्वयं तो सुनते ही हैं, अन्य जन भी सुनते हैं। उपांशु जप में होंठ हिलते हैं और मुँह से उच्चारण होता है, किन्तु उस जप के शब्द को स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर में अन्य किसी को सुनाई नहीं देता। मानस जप के लिये एक साधक ने अपना अनुभव लिखा है- “ मानस जप तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनन्दमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चारण नहीं करना होता। मन से ही मंत्रवृत्ति होती रहती है। नेत्र बन्द रहते हैं।” इसके व्यतिरिक्त कुछ लोग श्वास पर भी मंत्र-जप करते हैं।
ध्यान में स्थूल और सूक्ष्म; दो प्रकार हैं। ‘स्थूल ध्यान’ में इष्ट की मानस मूर्त्ति का ध्यान और ‘सूक्ष्म ध्यान’ में ज्योतियोग और नादयोग का आश्रय लेना पड़ता है। ज्योतियोग वा दृष्टियोग की सैकड़ों साधना-विधियाँ हैं, जिनमें तीन प्रकार मुख्य हैं-अमादृष्टि, प्रतिपदा-दृष्टि और पूर्णिमा-दृष्टि। आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा-दृष्टि है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा-दृष्टि है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिये। पुनः यह कह देना आवश्यक है कि दृष्टि को इन तीनों विधियों में अमादृष्टि की साधना सरल, सुखद और आपदा-रहित है तथा प्रतिपदा एवं पूर्णिमा-दृष्टियोग सापद, कठिन और कण्टकाकीर्ण है।
अमादृष्टि के विषय में किसी का कहना है कि “आँख मूँदना बक्क का काम है” और कोई कहते हैं कि “ इससे नींद आ जाती है।” अतएव इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है। अमादृष्टि से ध्यानाभ्यास करने का अर्थ है- निमीलित नेत्र (बंद किए हुए नेत्र / चमकती हुई आँखों / आत्मा की प्रकाशमयी स्थिति का अनुभवयुक्त आँखों) से ध्यान करना। इस तरह आँख बन्द कर ध्यान करने से अमानिशोय (निराशा) की तमिस्त्रा (धुंधलापन/अंधकार) साधक के सम्मुख उपस्थित हो जाती है। अपना वृत्ति को इस अमावस्या के श्याम गगन में रखने पर साधक के मन पर कोई नया संस्कार नहीं पड़ता। इसका हेतु यह है कि आँख बन्द रहने पर कोई भी जागतिक दृश्य गोचर नहीं होता। जागतिक दृश्य के अभाव में तत्सम्बन्धी भाव मन में उत्पन्न नहीं होते और मन की चञ्चलता छूटती है। तब वह गुरु-निर्देशित स्थान पर क्रिया-विशेष-द्वारा अपने मन और दृष्टि को स्थिर कर अपने पुराने अशुभ संस्कारों को शमित करने (नियंत्रित करने/दबा देने) में सक्षम होता है। और नींद के लिये तो कहना क्या? प्रमादी आदमी (असावधान व्यक्ति) को उन्मीलित नेत्र (खुली आँखों) में भी नींद आती है और अप्रमादी (अविचलित अवस्था में रहने वाला व्यक्ति) को निमीलित नेत्र में भी नहीं आती। नेत्र खुले हों अथवा बन्द; साधक को दोनों अवस्थाओं में सचेत रहने की नितान्त आवश्यकता है। साथ ही, आलस्य वा नींद का होना, न होना साधक के आहार-विहार पर निर्भर करता है। एतदर्थ तद्विषयक व्यावहारिक ज्ञान भी उसको होना चाहिये।
आँख बन्द कर ध्यान करने की प्रणाली नयी नहीं प्राचीन है। त्रेता और द्वापर युग के विशेषावतार भगवान श्री राम, भगवती श्री सीता, भगवान श्री कृष्ण तथा व्यासदेव जी प्रभृति के ध्यानावस्थित चित्र के दर्शन करने पर उनके कमलनयन बन्द ही प्रतीत होते हैं। अपनी अज्ञानता वा अनभिज्ञता के कारण राजा परीक्षित ने जिस मुनि के गले में मृत सर्प डाला था, वे शमीक मुनि नेत्र-द्वय बन्द कर ही ध्यान कर रहे थे। वनवास-काल में भगवान श्री राम जब सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम जा रहे थे, तो उस समय वे मुनि निमीलित नेत्र से ध्यान में तल्लीन थे। बल्कि उनके सम्मुख भगवान के उपस्थित होने पर भी उनके कृपा-आगमन का ज्ञान नहीं हो सका। जब स्वयं मर्यादा-पुरुषोत्तम ने अपनी योगशक्ति से उनके ध्यान के ध्येय-रूप को बदल दिया, तब कहीं उन्होंने जान पाया। आज भी भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमा से यही बोध होता है कि वे नेत्र बन्द करके ही ध्यान करते थे।
इसके अतिरिक्त हम यह भी देखते हैं कि इनके परवर्त्ती संतों ने प्रायः इसी प्राचीन प्रचलित पथ का अनुसरण किया है, जिसका निर्देशन हम सन्तों की निम्नलिखित वाणियों में पाते हैं; यथा-
“गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं, जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें, फेरि ले सुक्ख के सिन्धु आनै ।।
बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में, गुरुदेव समान कोइ नाहि तोलै ।।”
(कबीर साहब)
“ तीन बन्द* लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ।।”
(गुरु नानकदेव)
*[मुख, नेत्र और कर्ण। (ये हठयोग के तीन बन्ध-मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध नहीं है।)]

“दोउ मूँदि के नैन अन्दर देखा, नहिं चाँद सुरज दिन राति है रे ।
रोशन समां बिन तेल बाती, उस ज्योति सों सबै सिफाति है रे ।।”
(यारी साहब)
“ आँख मूँदि के ध्यान लावै, द्वार दसवाँ खोलन ।।”
(पलटू साहब)
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मूँदि लिये दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसी कहो, समझि लेहु यह सैन ।।”
(परम भक्तिन सहजोबाई)
“ निराधार निज देखिये, नैनहुँ लागा बन्द ।
तहँ मन खेलै पीव सौं, दादू सदा अनन्द ।।”
(सन्त दादू दयाल जी)
“ तीनों बन्द* लगाय असथिर अनहद आराधै ।
सुरत निरत का काम राह चल गगन अगाधे ।।”
(सन्त चरणदास जी)
*[“ आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ।” (कबीर साहब)]
त्रिबन्द (आँख, कान और मुँह) के सम्बन्ध में महर्षि मेँहिँ परमहंस जी महाराज के निज विचार ये हैं- “जब तक नादानुसन्धान-अभ्यास करने की गुरु-आज्ञा न हो-केवल मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग के अभ्यास करने की ही गुरु-आज्ञा हो, तबतक दो ही बन्द (आँखबन्द और मुँहबन्द) लगाना चाहिये। नादानुसन्धान करने की गुरु-आज्ञा मिलने पर आँख, कान और मुँह-तीनों बन्द लगाना चाहिये।”
भक्तवर जयदयाल जी गोयन्दका महोदय ने दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान पर कितना सुन्दर तथा स्पष्ट प्रकाश डाला है, पठनीय है- “ दृष्टि जमाने का और आँख मूँदकर ध्यान करने का परिणाम तो मन को स्थिरता और शुद्धि, बुरे संकल्पों का नाश और शान्ति इत्यादि हुआ करते हैं-----। कान बंद करके अंदर की आवाज में भगवान के नाम की ध्वनि सुनने का साधन भी बड़ा उत्तम है। इसमें हानि की कोई बात नहीं है। दूसरे साधनों के साथ इसे भी किया जा सकता है। यह साधन रात्रि में और भी सुगमता से किया जा सकता है; क्योंकि उस समय हल्ला-गुल्ला कम होकर शान्त वातावरण हो जाता है।”
(‘कल्याण’, वर्ष 30, अंक 9, पृ0 1168)
ध्यानविन्दूपनिषद में एक मंत्र आया है-
“बीजाक्षरं परं बिन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशबदं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
इस मंत्र के माध्यम से ऋषि ने नादानुसन्धान की विधि का स्पष्टीकरण किया है। उन्होंने बताया है कि विन्दु पर नाद अवस्थित है अर्थात साधक प्रथम विन्दु ग्रहण करे, पश्चात् नाद और यह नाद जहाँ विलय होगा, वह परमपद वा परमात्मपद है। एतदर्थ ऐसी सद्युक्ति की आवश्यकता है, जिसके द्वारा प्रथम विन्दु ग्रहण हो और बिन्दु ग्रहण होते ही स्वाभाविक नादानुभूति भी हो।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मन से विन्दु की कल्पना नहीं की जा सकती; क्योंकि उसमें लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, ऊँचाई गहराई आदि कुछ नहीं होती; किन्तु इतना कहा जा सकता है कि परिणाम-रहित होने पर भी उसका स्थान है और उसकी स्थिति भी। रेखा विन्दुमयी होती है और रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। पेन्सिल वा लेखनी की नोक जहाँ पड़ती है, वहाँ एक चिह्न उत्पन्न होता है, जिसको ‘विन्दु’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं, किन्तु यह कल्पित विन्दु है, यर्थाथ नहीं; क्योंकि इसमें कुछ-न-कुछ परिणाम अवश्य होता है। वस्तुतः मन से कल्पित विन्दु यर्थाथ विन्दु नहीं हो सकता।
सन्त-सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर उनके द्वारा निर्देशित स्थान पर यौगिक कलात्मक ढंग से अवलोकन करने पर मन एवं दृष्टि की एकओरता में जो अवलोकित होता है, वह यथार्थ विन्दु है। इसी हेतु ध्यानविन्दूपनिषद के प्रणेता ऋषि ने उपर्युक्त श्लोक में ‘परमविन्दु’ कहकर सम्बोधित किया है। यह परमविन्दु वह ‘ज्योतिर्मय विन्दु’ है, जिसका ध्यान तेजोविन्दूपनिषद में परमोत्कृष्ट ध्यान बताया है; यथा-
“ तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।” अर्थात हृदय-स्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।
योगशिखोपनिषद में लिखा है कि विन्दु-पीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है।
“ विन्दु पीठं विनिर्भिद्यनादलिंगमुपस्थितम् ।”
(अ- 2)
संतों की वाणियों में हम विंदु-ग्रहण के पश्चात् नादश्रवण की विधि का उल्लेख पाते हैं; जैसे-
“स्त्रुति ठहरानी रहै अकासा । तिल खिड़की में निसदिन वासा ।।
गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
(तुलसी साहब, हाथरस)
संत तुलसी साहब ने ज्योतिर्मय विंदु को यहाँ ‘तिल’ कहकर संकेतिक किया है। संत कबीर साहब ने भी ‘विन्दु’ को ‘तिल’ शब्द से सम्बोधित किया है और कहा है कि जो कोई पहले विंदु अर्थात तिल पर ध्यान स्थिर कर पाता है, वह विद्युत्प्रभा-सह मेघगर्जन और अनहद नाद सुन पाता है।
“प्रथमे सुरति जमावे तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावे ।।”
(कबीर साहब)
गुरु नानक देव जी ने बताया है कि अपनी चेतन-वृत्ति को इड़ा-पिंगला से हटा, सुषुम्ना में लाकर नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करे।
“सुखमन के घर राग सुनि, सुन मण्डल लिद लाइ ।
अकथ कथा बीचारिअै, मनसा मनहिं समाइ ।।”
संत पलटू साहब की वाणी में आप पढ़ेंगे-
“विन्दु में तहँ नाद बोले रैन दिवस सुहावनं ।।
संत राधा स्वामी साहब ने भी ‘विन्दु’ को ‘तिल’ शब्द से अभिहित किया और उसकी प्राप्ति का निर्देशन उन्होंने सुषुम्ना में किया है।
“सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में जोत अकार ।।”
पुनः उन्होंने सुरत को तिल-द्वार तक खींचकर ले जाने और वहाँ दाहिंनी ओर की शब्द-धार को ग्रहण करने का आदेश दिया।
“सुरत खैंच तक तिल का द्वार।
दहिनी दिशा शब्द की धार ।।”
महर्षि मेँहिँ परमहंस जी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“तिल द्वार तक के सीधे सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन चढ़-चढ़ के खोजना ।।”
दृष्टियोग-साधना के माध्यम से स्थूल मण्डल के केन्द्र पर अवस्थित होकर साधक सूक्ष्म-मण्डल के केन्द्र से उत्थित नाद को ग्रहण करता है और उसके आकर्षण से आकर्षित हो वह सूक्ष्म मण्डल के केन्द्र-विन्दु पर प्रतिष्ठित होता है। एवं प्रकार अन्तर्ध्वनि धारण कर क्रम-क्रम से वह कारण, महाकारण और कैवल्य के केन्द्र पर आ पहुँचता है। पुनः वहाँ वह आदिनाद से खिंचकर ‘निःशब्दं परमं पदम्’ अर्थात परमात्म- धाम में विराजित होता है।
यदि सन्त-साधना को समास रूप में समझना चाहें, तो महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की सूक्ति सुनिये- “मानस-जप और मानस-ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है। एक विन्दुता वा अणु से भी अणु रूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है। सारशब्द के अतिरिक्त दूसरे सब नादों का ध्यान सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप उपासना है, और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है। जब मन लय होगा, तब सुरत को मन का संग छूट जायगा। मन-विहीन हो शब्दधारों से आकर्षित होती हुई (सुरत) निःशब्द में अर्थात परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुँचकर वह भी लीन हो जायगी। अन्तःसाधन की यहाँ पर इति हो गयी। प्रभु मिल गये। काम समाप्त हुआ।” 


जैसे कोई रोगी स्वास्थ्य-लाभ करने के लिये औषधि-सेवन करता है और तदनुकूल पथ्यापथ्य का विवेक कर संयम से रहता है, वैसे ही संसृति-संताप-दैहिक, दैविक और भौतिक; त्रिताप से विमुक्त होने के लिये योग-साधन का आश्रय ग्रहण कर साधक का संयमशील होना अनिवार्य है। संयम के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में कहा है-
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चेकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।16।।
हे अर्जुन! यह समत्वरूप योग न तो ठूँस-ठूँसकर खानेवाले को प्राप्त होता है और न बिल्कुल उपवासी की। वैसे ही वह बहुत सोनेवाले या बहुत जागनेवाले को प्राप्त नहीं होता।
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।17।।
जो मनुष्य आहार-विहार में, दूसरे कामों में, सोने-जागने में परिमित रहता है, उसका योग दुःखभंजन हो जाता है।
इस प्रकार के संयम-‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ को भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग कहा और उन्होंने पंचशील का पालन बताया।
भगवान बुद्ध ने जिसको पंचशील* की संज्ञा दी, उसी को महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने पंच पापों- झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से विरत रहना बताया। इसके अतिरिक्त महर्षि जी ने और भी निम्नलिखित बातें बतायीं- “साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को सन्तुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिये परमोचित है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया, शील, सन्तोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना; साधक के पक्ष में अत्यन्त हितकर है।”
*[1- पाणानिपाता वेरमणी (हिंसा-त्याग),
2- अदिन्नादाना वेरमणी (चोरी-त्याग),
3- कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी (व्यभिचार-त्याग),
4- मुसावादा वेरमणी (असत्य कथन-त्याग),
5- सुरामेरयमज्जप्पमादाट्ठाना वेरमणी (मद्यपान-त्याग)।]
मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं। साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिये।
सात्त्विक आहारों में भी अल्प-अल्प छहों स्वाद होते हैं। परन्तु ये जब विशेष मात्र में होते हैं, तब सात्त्विक नहीं रहते। विशेष औंटा हुआ गाय का दूध, भैंस का दूध, मत्स्य, मांस और पक्षी, कछुए, मछली, मुर्गी आदि सब प्रकार के अण्डजों के अण्डे गुण में बहुत गर्म होते हैं। ये उत्तेजक और वीर्य-रक्षा के बाधक हैं।” ये सात्त्विक आहार नहीं है।
योगिवर पं0 भूपेन्द्रनाथ जी सान्याल महोदय ने लिखा है- “ मांस और मछलियों का सर्वथा त्याग ही उत्तम है; क्योंकि इन सब प्राणियों के देह-कणों में जो रोग और उनके अपने विशेष-विशेष स्वभावों के परमाणु रहते हैं, मांस खाने से वे मनुष्य-देह में संचारित होकर मनुष्य के शरीर में रोग और मन में अशान्ति पैदा करते हैं और उनकी प्रकृति तक को बिगाड़ देते हैं। किसी भी नशीली चीज का सेवन नहीं करना चाहिये, उससे धर्म की हानि होती है।”
“ जैसा खाय अन्न वैसा होय मन” तथा “ जैसा आहार वैसी डकार” यह बात मात्र सैद्धान्तिक वा कहावत नहीं, परीक्षित सत्य है। रजोगुणी और तमोगुणी आहार काम-क्रोधादिक विकार उत्पन्न करते हैं। इस हेतु इस प्रकार के भोजन, जो उत्तेजक वा कामोद्दीपक हों, से साधक को अवश्य बचना चाहिये। साधक का आहार-विहार सात्त्विक और संतुलित होना परमावश्यक है। साथ ही, साधक को ऐसे संग से सतत सावधान रहना चाहिये, जो मनोविकारों के उभारने वा सदाचार भंग करने में सहायक हो।
जैसे अच्छी नींव के बिना अच्छी इमारत नहीं बन सकती, वैसे ही ठीक-ठाक सदाचार-पालन के बिना यौगिक सफलता नहीं मिल सकती। जितना सम्बन्ध कि ‘Q’ के साथ ‘U’ का है, उससे कई गुणा अधिक सम्बन्ध ‘साधना’ के साथ ‘सदाचार’ का है। जैसे पद-विहीन जन चलने में असमर्थ होता है, वैसे ही आचरणहीन जन अध्यात्म-पथ में प्रगति पाने में असमर्थ होता है अर्थात ऐसे जन की योग में गति नहीं होती। इसीलिये सभी सन्तों ने सदाचार-पालन पर अधिक बल दिया।
संयमित जीवन व्यतीत करने का आदेश हम ईसाई धर्म-ग्रन्थ-पवित्र बाइविल में भी पाते हैं; यथा-
“Thou shalt do no murder, Thou shalt not commit adultery. Thou shalt not steal, Thou shalt not bear false witness.” St. Mathew 19/18
अर्थात हिंसा न करो, व्यभिचार न करो, चोरी न करो और मिथ्या भाषण न करो। 


अध्यात्म-ज्ञान से अनभिज्ञ कितने लोगों का यह कहना है कि योग, ज्ञान, ध्यान आदि लोगों को साधु-संन्यासी बनाता है अर्थात लोगों की बुद्धि को सात्विकी बना उसे जागतिक कार्य-संभाल के योग्य रहने नहीं देता। अध्यात्म-ग्रन्थ वा योगशास्त्र गृहस्थों के पठन-पाठन की चीज नहीं है और न योग गृहस्थों के करने की चीज है।
किन्तु यदि समझा जाय तो योगशास्त्र-अध्ययन वा यौगिक क्रियाओं के आचरण करने से वे ही घबरा सकते हैं, जिनको श्रीमद्भगवद्गीता अवलोकन करने का अवसर आजतक अलभ्य रहा है। उनको स्मरण होना चाहिए कि राजपुत्र अर्जुन जब महाभारत-युद्ध से विमुख हो, अपने कुटुम्ब-परिवार का परित्याग कर संन्यासी बनना चाहते थे, अष्टादश योग की शिक्षा देकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनको गृहस्थ ही नहीं, सद्गृहस्थ बना युद्धोन्मुख किया।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण महागृहस्थ होते हुए ‘महायोगेश्वरो हरिः’ थे। इन्हीं के द्वारा विवस्वान् अर्थात सूर्य को यौगिक ज्ञान मिला था। पश्चात् विवस्वान् ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को बतलाया। ऐसे ही परम्परा से प्राप्त इस (योग) को राजर्षियों ने जाना और राजा जनक भी इसका आचरण करते थे। ये सभी नृप गृहस्थ थे।
और भी देखिये, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के गुरु वशिष्ठ मुनी जी सद्गृहस्थ थे। उन्होंने भगवान श्रीराम को जिस योग का उपदेश किया, उस विशाल समुच्चय का नाम ‘योगवशिष्ठ’ पड़ा। राजाओं की परम्परा में यह विद्या वा योग होने के कारण इसको ‘राजविद्या’ वा ‘राजयोग’ की संज्ञा से अभिहित किया गया। तब कैसे कहा जा सकता है कि योग, ज्ञान, ध्यानादि गृहस्थों के लिये नहीं, विरक्तों के लिये है!
यह योग अत्यन्त सरल है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें प्राणायाम-योग के बिना ही केवल ध्यान-योग-द्वारा बिना परिश्रम के आप-ही-आप प्राणस्पन्दन निरुद्ध हो जाता है। इसी को सन्त कबीर साहब ने इस भांति कहा है-
“ न योगी योग से ध्यावे, न तपसी देह जरवावे ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरत का खेल जेहि आवे ।।”
तथा शाण्डिल्योपनिषद में लिखा है-
“ द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।”
जब ज्ञानदृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
“ भ्रूमध्ये तारकालोकशान्ताबन्तमुपागते ।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।”
जब चेतन अथवा सुरत भौओं के बीच के तारक-लोक (तारामण्डल) में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है।
इसमें किसी प्रकार की आपदा की सम्भावना नहीं है। सरल और कुशल-साध्य होने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण का यह उद्घोष है कि- “ इस योग के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे स्त्रियाँ हों, पुरुष हों, शुद्र हो अथवा पाप-योनि-संभव ही क्यों न हों।”
“ मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियोवैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।”
(गीता 9-32)
महाभारत शान्ति पर्व में श्रीव्यासदेव जी का आदेश है- “ इस शान्त चित्तरूप योग-मार्ग से शूद्र और धर्म जानने वाली स्त्रियाँ भी परम गति को पाती हैं। शान्त चित्तरूप योग-मार्ग में स्त्री और शूद्र भी अधिकारी हैं।”
(पूर्वार्द्ध मोक्ष धर्म अ0 67)
“ स्मार्त मार्ग में चतुर्थाश्रम का जो महत्त्व है, वह भक्ति-मार्ग में अथवा भागवत धर्म में नहीं है। वर्णाश्रम धर्म का वर्णन भागवत धर्म में भी किया जाता है, परन्तु उस धर्म का सारा दारोमदार भक्ति पर ही होता है। इसलिये जिसकी भक्ति उत्कृष्ट हो, वहीं सबमें श्रेष्ठ माना जाता है-फिर चाहे वह गृहस्थ हो, वानप्रस्थ या वैरागी हो, इसके विषय में भागवत धर्म में कुछ विधि-निषेध नहीं है।
(भा0 11, 18, 13, 14)
जिसकी बुद्धि सम हो जावे, वही श्रेष्ठ है। फिर चाहे वह सुनार हो, बढ़ई हो, बनिया हो या कसाई; किसी मनुष्य की योग्यता उसके धन्धे पर, व्यवसाय पर या जाति पर अवलम्बित नहीं, किन्तु सर्वथा उसके अन्तःकरण की शुद्धता पर अवलम्बित होती है। (गीता-रहस्य)
यही कारण है कि जगत के अध्यात्म-गगन में कपिल, कणाद, शंकर, सूर और तुलसी के साथ श्वपच (वाल्मीकि), नाभा, रविदास, कबीर, मदालसा, सुलभा, मैत्रेयी, गार्गी, शबरी, मीरा, सहजो आदि भी नक्षत्र बन जनगण के मन के कण-कण को अपने ज्ञानालोक से आलोकित करते हैं।
आवश्यकता है क्रियावान् शुद्धाचरणी सन्त सद्गुरु की, जिनके द्वारा योग की सरलतम विधि जानकर साधना का शुभारम्भ किया जा सके।  

श्री सद्गुरु महाराज की जय!